Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद]
[ ३७७
इति श्रुत्वा ततः प्राह सा सती कमलावती । भो स्नुषे शृण मत्पुत्रस्सुधीस्सत्य परायणः ॥११५।। जिन प्रवचने चञ्चुस्तस्य वाचा न चान्यथा । कि मेरुश्चलति स्थानात् किं सिन्धूमूञ्चति स्थितिम् ॥११६।। तिष्ठ त्वं साम्न बाले पुनचिन्न चरस .
धर्मध्यानेन ते सत्यं भविष्यन्ति मनोरयाः ॥११७।।
मन्वयार्थ-(इति) इस प्रकार मैंना सुन्दरी का निश्चय (श्रुत्वा) सुनकर (ततः) अनन्तर (सा) वह (सती) शीलवती (कमलावती) कमलावती (प्राह ) बोली (भो) हे (स्नुषे) ववू ! (श्रण ) सुनो (मत्पुत्र) मेरा सुत (सुधी) विद्वान है, (सत्यपरायणः) सतस सत्य भाषी, (जिनप्रवचने) जिनागम में (चञ्चुः) प्रवेश करने वाला है (किं) क्या (मेहः) सुमेरु पर्वत (स्थानात्) अपने स्थान से (चलति) चलायमान होता है ? (किम् ) क्या (सिन्धुः) सागर (स्थितिम्) सीमा को (मुञ्चति) छोडता है ? नहीं उसी प्रकार (तस्य) उसके-श्रीपाल (वाचा) वचन (अन्यथा) विपरीत (न) नहीं होंगे (च) और (बाले ! ) हे पुत्री ! (त्वम् तुम (साम्प्रतम) इस समय (धर्मध्यानेन) धर्म ध्यानपूर्वक (दिनचतुष्टयम ) चार दिन (तिष्ठ) ठहरो (पुनः) फिर (सत्यम ) निश्चय ही (ते) तुम्हारे (मनोरथाः) मनोरथ (भविष्यन्ति) पूर्ण होंगे।
भावार्थ --मैनासुन्दरी दीक्षा को तैयार हुयी। उसने अपना मन्तव्य मपनी सास के