Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रोपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद)
[३७५
अन्वयार्थ---(सभयः) भय सहित (प्रस्तः) दुखो राजा ने (गजाश्व सुभटोत्करैः) हाथी तुरङ्ग. वीर सभटों के साथ (नानाबस्तुगत:) सैकड़ों प्रकार की अन्य सामग्री (अपि) भी (युद्धार्थम् । युद्ध करने योग्य (सामग्रीम्) अस्त्र-शस्त्रादि को कारयामास) तयार करायाएकत्रित किया ।
भावार्थ--प्रजापाल राजा पर चक्र के आक्रमण के प्राभास को पाकर तत्काल ही संग्राम की सामग्री तैयार करने में जुट गया । सत्य ही है कर्त्तव्यनिष्ठ अवसरानुसार कर्तव्य से च्युत नहीं होता । उसने गज, अश्व, अस्त्र, शस्त्र सुभट आदि समस्त सामग्री तैयार एकत्रित की। महाबली शत्रु का सामना करना है यह सोचकर वह अधीर हो गया फिर भी धैर्य छोडा नहीं ।। १०६ ।। उधर राजा प्रजापाल संग्राम की तैयारी में जुटा है । इधर श्रीपाल के मन में अपनी प्राणप्रिया के देखने की अभिलाषा उमंग के साथ वृद्धिगत हो रही है, वह क्षणभर भी अब समय खोना नहीं चाहता था क्योंकि मैनासुन्दरी को दीये समय की अवधि का यह अन्तिम दिन है । अत: वह प्रिया के भाव को ज्ञात करने की इच्छा से प्रच्छन्न रूप में कान्ता के पास जाने को तैयार हुए.
तवा श्रीपाल राजोऽपि सैन्ये सेनापति निजम् । संस्थाप्य सर्वरक्षार्थ यी प्रान्छन तः ११ सारमुल्लंघ्य वेगेन स्वान्तरायमिवोन्नतम् ।
एकाकी तन्मनोज्ञातु कान्तावासं समाययौ ॥१११॥ अन्ययार्थ--(तदा) रात्रि में ही (श्रीपाल राज:) कोटिभट थीपाल नृप (अपि) भी (सैन्ये ) सेना में (निजम्) अपन (सेनापतिम) सेनापति को (सर्वरक्षार्थम्) सबकी रक्षा के लिए (संस्थाप्य) नियुक्त कर (रात्री) रात में (सारम् ) सीमा को (उल्लंघ्य) उलंघन कर (प्रच्छन्न) द्र पे (भावतः) भाव से (वेगेन) शोघ्र ही तीव्रगति से (स्वान्तरायमित्र) अपने अन्तराय के समान हो (उन्नतम) उन्नत (तन्मनोज्ञातुम् ) कान्ता के मनोगतभावों को जानने के लिए (एकाको) अकेला ही (कान्तावासम् ) प्रिया के निवासकक्ष में (समाययो) पाया ।।१११।।
भावार्थ .. श्रोपाल उज्जयिनी के बाहर है परन्तु उसका मन अपनी प्राणप्रिया के पास है । रात्रिमात्र भी अब प्रिया के वियोग को सहने में समर्थ न हो सका । पवनञ्जयकुमार की भाँति रात्रि में हो जाने की तैयारी की। उसी समय अपने सेनापति को बुलाया, समस्त सेना को रक्षा तुम्हें करनी है यह आदेश दिया । उसे नियुक्त कर स्वयं प्रच्छन्न रूप से अकेला ही प्रिया के मनोभाव ज्ञात करने के अभिप्राय से निकल पड़ा। सच है प्रेम अन्धा होता है । लोक और समाज की मर्यादा का उल्लंघन इसे कठिन नहीं । लौकिकी विधियों में निपुण भो श्रीपाल अधीर हो भूल गया । उसे भय भी तो था कि "कहीं मेरी कान्ता दीक्षा न ले ले ।" अस्तु वह महासती पतिभक्ता एवं जिनभक्ता रमणी मैनासुन्दरी के भवन में पहुंच गया। वहीं