Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद परचक्रं समायातमिति श्रुत्वा भयाकुलः ।
प्रजापालस्तदा राजा संजातो मानसेतराम् ॥१०॥
प्रत्ययार्थ--(तदा) जब श्रीपाल जी ने उज्जयिनी को घेर लिया और चारों ओर उसका जय-जय कार गुज उठा तो (प्रजापालराजा) वहाँ का प्रजापाल राजा (परचक्र) शत्रुसमूह (समायातम् ) पाया है (इति) इस प्रकार (श्रुत्वा) सुनकर (मानसे) मन में (तराम्) अत्यन्त ( भयाकुलः) भयभात (सजातः) हुआ।
भावार्थ--श्रीपाल के दल-बल की और अपनी नगरी के प्रेरा की बात सुनकर उज्जयिनी का अधिपति प्रजापाल महीधर थराथरा रा ! इतना पट निर्भोक, शक्ति गालो शत्रुदल अचानक आक्रमण कर बैठा है यह सोचकर वह भय से प्राकुल-व्याकुल हो गया । प्रजा रक्षण राजा का प्रधान कर्तव्य है क्योंकि "यथा राजा तथा प्रजा" होती है। राजा पिता
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समान होता है तो प्रजा भी सन्तान-वत होती है । अतः प्रजापाल राजा प्रजारक्षा के उपायों को सोच अधीर हो उठा ।।१०।।
युद्धार्थं समयस्त्रस्तो गजाश्व सुभटोत्करः । सामग्री कारयामास नानावस्तुशतैरपि ।।१०।।