Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद
तत्र क्षत्रिय भूपानां महोत्सवशतैर्युतम् । सहस्रद्वितीयं कन्याः परणीय यथा सुखम् ॥७०॥ मल्लिवाल महादेशे कन्या सप्तशतानि च कलिंगदेशमध्ये च सहस्र कन्यकाः पराः ॥७१॥ परणीय पुनः प्राप पत्तनं बलवर्तनम् ।
तंत्र श्री धनपालास्यस्स राजा परया मुदा ।।७२।। महासैन्य समायुक्तं महासम्पद्विराजितम् । श्रीपालं संविलोक्योच्चैः परमानन्द निर्भराः ।। ७३ ।।
सुधीरसन्मानयामास महोत्सव शतैरपि । भार्यास्सर्वाश्च संप्रापुः महाप्रीति परस्परम् ॥७४॥
श्रन्वयार्थ – ( ताभिः ) उन (स्त्रीभिः ) स्त्रियों से ( समायुक्तः) सहित (वा) मानों ( सुरद्रमः) कल्पवृक्ष के सह (पर्यटन) घूमते हुए ( लीलया ) विलास पूर्वक ( नित्यम ) प्रतिदिन ( यात्रकादीन् ) भिक्षुकों को (तर्पयन् ) संतुष्ट करते हुए (च) और (पञ्चपण्डित - नामानं ) पञ्चपण्डित नामक ( देशम् ) देश को (गत्वा) जाकर (सः) उस ( अनेकमण्डिलापालितः ) अनेकों मण्डलों को पालन करने वाले ( महिमान्वितः ) महा महिमा सम्पन्न ( भूपतिः ) राजा ( श्रीपाल : ) महीपति श्रीपाल ने ( तत्र ) वहाँ (क्षत्रियभूपानाम् ) क्षत्रियराजाओं की ( सहस्रद्वितयम् ) दो हजार ( कन्याः ) कन्याओं को ( यथासुखम् ) सुखपूर्वक ( महोत्सवशतैः ) सैंकडों उत्सवों के ( श्रुतम् ) साथ (परिणीय) विवाहकर (च) और (मल्लि - वालमहादेशे ) मल्लिवाल महादेश में (सप्तशतानिकन्या) सातसौ कन्याओं को (च) और ( क लिंगदेश मध्ये ) कलिङ्गदेश में (परा : ) दुसरी ( सहस्रकन्यकाः ) हजार कन्याओं को ( परिणीय) विवाह कर ( पुनः ) वापिस फिर ( दलवर्त्तनं पतनम् ) दलवर्तनपत्तन ( प्राप) आया (तत्र) वहाँ (परयामुदा) अत्यन्त हर्षित ( धनपालाख्यराजा ) धनपाल राजा (सः) उसने ( महासैन्यसमायुक्तम् ) महानविशाल सेना सहित ( महासम्पद्विराजितम् ) बहुत विभूति सहित (श्रीपाल ) श्रीपाल को ( संविलोक्य) देखकर (परमानन्दनिर्भराः) परम आनन्द से ( सुधीः ) बुद्धिमान को (अपि) और भी ( महोत्सवशतः ) सैकड़ों उत्सवों द्वारा ( सम्मानयामास ) सम्मानित किया (च) और (सर्वाः ) सम्पूर्ण ( भार्याः ) पलियाँ (परस्परम् ) आपस में ( महाप्रीतिम ) प्रत्यन्त प्रीति को (सम्प्रापुः) प्राप्त हुयीं।
भावार्थ- महाभियाधिपति श्रीपाल नृपति १६०० कन्याओं को विवाह कर उनके साथ लीला पूर्वक विदेश जाने लगा तो ऐसा प्रतीत होता था मानों कल्पवल्लरियों से सुशोfor hoपवृक्ष ही हो । हास विलास विनोद पूर्वक वह पञ्चपण्डित नामक देश में जा पहुँचा । अनेकों प्रकार दान देता हुआ सबको संतुष्ट करता जाता । अनेकों मण्डलों का पालन कर महा