Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद
काण में एक क्षीण प्रेमविद्य त की चिनगारी जल उठी वह सहसा चौका, निद्रादेवी भोत हो पलायन कर गई । विचारों का तांता यन्ध गया । वह सोचने लगा, अहो ! आश्चर्य है, मैं कितना कृतघ्न हूँ। अपना सारा समय भोगों में मस्त होकर बिता दिया । स्वयं मेरा समय सुख से जा रहा है. परन्तु मेरे जीवन को आधारभूत मेरी प्रिया मदनसुन्दरी का क्या होगा ? वह सती, धर्मज्ञा मेरो अवधि तक ही प्रतीक्षा करेगी । निश्चय ही यदि बारह वर्ष के अन्दर मैं उज्जयिनी नगरी नहीं पहुँचा तो वह अवश्य ही जिनदीक्षा धारण कर लेगी। क्योंकि मनस्वी अपने बचन पर अडिग रहते हैं। मुझे भी मेरी प्रतिज्ञा का अवश्य पालन करना चाहिए । अस्तु, अन्न अविलम्ब उज्जयिनी जाना ही चाहिए। इस प्रकार कृत निश्चय हुआ ॥७५, ७६, ७७।।
पोक्त मवनसन्दर्या वचनं सत्य संयुतम् । स्मृत्वा तां भूपति प्रोक्त्या स्व यानं स्य पुरिं प्रति ॥७॥ चतुरङ्ग महासैन्यालंकृतोन्तः पुरा वृतः ।
पुरिपुज्जयिनी गन्तु संचचाल ध्वजादिभिः ।।७।।
अन्वयार्थ - (सत्यसंयुतम् ) यथार्थता से भरे, सत्यपूर्ण (मदनसुन्दयाँ) मदन सुन्दरी द्वारा (प्रोक्तम् ) वाहे हुए (वचनम् ) वचनों को (स्मृत्वा) याद कर (ताम् ) उनको (भूपतिम् ) राजा को (प्रोक्रवा) कहकर (चतुरङ्गमहासैन्यालंकृतः) गज, सत्य, रथ, पदाति चतुर्बल सेना से शोभित (अन्तः पुरावृतः) अन्तः पुर से प्रावृत (स्वयानं) अपनी सवारी को (स्वपुरिम्) अपनी पुरी (उज्जयिनीम् ) उज्जयिनी को (प्रति ) ओर (गन्तुम् ) चलने को (ध्वजादिभिः) प्रजादि से सज्जित (संचचाल) चल पड़ा।
भावार्थ - श्रीपाल महाराज को अब क्षण-क्षण भारी हो गया । वे एक पल भी विलम्ब करना नहीं चाहते थे । अतः मैंनासुन्दरी को कहे वचन कि 'बारह वर्ष के अन्दर मैं नहीं आऊँ तो तुम जिनदीक्षा ले सकती हो" अपने श्वसुर को विदित करा दिये और प्रस्थान की स्वीकृति ग्रहण की। तदनन्तर हाथी, घोड़ें, रथ, पयादे ये चार प्रकार के सैन्यदल तैयार किये और अपनी नगरी को प्रस्थान की घोषणा की । अंतः पुर को समस्त रानियां सजधज कर तैयार हो गयौं । दास-दासियों समन्वित हुयीं । घण्टा बजाओं से रमणीय यान सबारियाँ सजी । इस प्रकार पूर्ण दलबल के साथ वह श्रीमन् श्रीपाल उज्जयिनी नगरी की ओर चल दिया 11७८, ७६॥
मण्डितश्चक्रवर्तीव नदद्वादित्र सद्ध्वनिः । प्रावृट्काल घनोयोच्चैस्सिञ्चन वित्तजलर्जनान् ।।८०॥ ऊर्जयन्तगिरि प्राप परमानन्द निर्भरः । सर्व सिद्धिप्रदं तुङ्ग सिद्धिक्षेत्रमनुत्तरम् ॥८॥