Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद . (छत्र चामर सध्वजान्) छत्र, चमर ध्वजाएँ आदि (प्रमोदेन ) आनन्द से (ददाति स्म) प्रशन कों (सत्यम) नोतिकार कहते हैं वास्तव में (पुण्यवताम्) पुण्यात्मानों को ही (श्रियः) लक्ष्मी है।
भावार्थ. सर्व विद्याओं और कलानों में निपुण कोटिभट श्रीपाल ने अपने वाक्चातुर्य और प्रत्युत्पन्नमति द्वारा उन श्रीपाल महीपति ने अपने वाक्य-वचनरूपी किरणों के प्रसार से उन कन्यानों के मनरूपी अम्बुजों को उसी प्रकार प्रफुल्ल-विकसित कर दिया, जिस प्रकार रवि रश्मियाँ कमल समूहों को खिला देती हैं। कन्याओं को सन्तुष्ट देखकर और श्रीपाल के प्रज्ञा चातुर्य से आकृष्ट राजा विजयसेन अत्यानन्दित हुए। उन्होंने उन आठों कन्यारत्नों के साथ समस्त सौलहसी (१६००) कन्याओं को विवाहविधि पूर्वक श्रीपाल को विवाह दी । उस समय कन्याओं का शृगार और सौन्दर्य देखते ही बनता था । अद्भुत नाना प्रकार के रंगविरंगे वस्त्र अनेक प्रकार के रत्नों जडित प्राभूषण पहने वे कन्याएँ ऐसी शोभ रहीं थीं मानों कल्पवृक्ष की लताएँ ही रुन-झन करतीं नत्य कर रही हों । सर्वत्र आनन्द छा गया । संकडों प्रकार के गान, वाद्य, मंगलपाठ, रत्नचूर्ण से पूरे गये चौक, हासबिलास आदि उत्सव मनाये गये। आबालवृद्ध सभी प्रसन्न थे । महाराज ने वरदक्षिणा में अनेकों सुवर्णरत्नादि, गज, अश्व, रथ, पादाति दिये, छत्र, चमर, ध्वजा-पताकाम्रो की संख्या नहीं थी। अत्यन्त प्रमोद-उल्लास से अनेकों सम्पदाएँ प्रदान की। यहां प्राचार्य कहते हैं कि वास्तव में लक्ष्मी पुण्य की चेरी है। जिसके साय पुण्य है, धन-वैभव स्वयं प्राकर उसके चरण चूमता है ।। ६१ से ६६ ।।
कङ्कणद्वीपनाथेन रक्षितोऽपि महाग्रहात् ।
तस्मादपि स्वसैन्येन संयुक्तो निर्ययौ महान् ।।६७।।
अन्वयार्थ--(कवणद्वीपनाथेन) उस कङ्कणद्वीप के भूपाल द्वारा (महान् ) अत्यन्त (आग्रहात्) आग्रह से (रक्षित: अपि) रोके जाने पर भी (स्वसैन्येन) अपनी सेना के (संयुक्तः) साथ (तस्मादपि) वहाँ से भी (निर्ययो) निकल गया ।
भावार्थ.. कडुणद्वीप के महीपति ने अनेकों प्रकार के धन-धान्य, सम्पत्ति, सैनादि वैभव देकर अपनी कन्याओं का विवाह श्रीमान् श्रोपाल के साथ कर दिया और वहीं रहने का आग्रह किया । किन्तु मनस्वी श्रीपाल ने इस प्रार्थना की ओर दृष्टि न दे वहां से भी प्रस्थान कर दिया । अनेकों सेना, सेवक उसके साथ चले।
ताभित्र/भिस्समायुक्तस्सलता वा सुरद्रुमः । पर्यटल्लीलया नित्यं याचकादींश्च तर्पयन् ॥६८।। पञ्चपण्डित नामनं देशं गत्वा स भूपतिः । श्रीपालः पालितानेक मण्डलो महिमान्वितः ॥६६॥