Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद] सुनो (अस्य) इस (धवलस्य) धवल (थेष्ठिनः) सेठ के (पोते) जहाज में (अधुना) इस समय (मे) मेरी (कान्ना) पत्नी (मदनमम्जूषा) मदनमञ्जूषा (नाम्ना) नाम की (विद्याधरनृपात्मजा) विद्याधर राजा की दोस्त
: (.) : माकम् । कुल, वंश, जाति आदि (सर्वम् ) सम्पूर्ण विवरण (ध्र वम) निश्चय (विजानाति) जानती है (मत्) मेरे (वियोगादितापनीम् ) मेरे वियोग प्रादि से सन्तप्त (शोकार्ताम् ) शोक पोहित (ताम) उस (सतीम् ) सती को (पृच्छ) पूछो (पतिमुखाम्बुजात्। पति के मुखकमल से (एवम् ) इस प्रकार (श्रुत्वा) सुनकर (गुणमाला) गुणमाला (इति) ऐसा ही करती हूँ निश्चय कर (आशु) शीघ्र ही (शिविकाम ) पालकी में (आरुह्म) सवार होकर (दतम) शीघ्र-तत्काल (तत्र) वहाँ (गत्वा) जाकर (सा) उस (सती) माध्वी (अतिशोकिनी) अत्यन्तशोका कुलित (गुणमाला) गुणमाला ने (शुभभावयुताम) निर्मल परिणाम वाली उस मदनमञ्जूषा को (वीक्ष्य) देखकर पूछा (सखी) हे सखी ! (मद्भर्नु :) मरे पति (श्रीपालस्य) भोपाल का (कुल क्रमम ) कुल परम्परा (वद) काहो (एवं) इस प्रकार (तत्) उसे (श्रुत्वा) सुनकर (अमुदा) खिन्न (अपि) भी (सा) वह मदनमञ्जूषा (माह) बोली (सुन्दरि) हे शोभने ! (अत्र) यहाँ (कः) कोन (श्रीपालः) श्रीपाल है ?
भावार्थ-प्रेमाग्रह का उलंघन सरल नहीं । गुणमाला के हृदय से उद्भुत प्राहें भरी प्रार्थना की उपेक्षा श्रीपाल नहीं कर सका । उसके दृढ सङ्कल्प के समक्ष उसे झुकना ही पड़ा । वह सौम्यमूति स्थिर और शान्तभाव से अपनी प्राण प्रिया गुणमाला को धंयें बंधा, आश्वासन देते हए कहने लगा fuो मनिता और शोक छोड़ो। तुम्हें शात है कि प्राज सागर तट पर
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