Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद की लोला विचित्र है। परिणामों की शतरञ्ज जीवन रूपी मञ्च पर निरन्तर चलती रहती है। हार-जीत का कोन ठिकाना ? स्वयं जोव शुभाशुभ कर्म उपार्जित करता है और स्वयं ही उसका फल भो भोगता है । कहाँ सुविख्यात वणिक् पति और कहाँ दुःखों का सागर नरक ? हृदयगति रूक गई एक क्षण में षट्स पदार्थ रह गये जहाँ के तहाँ और मिल गई दुका राह । कितना प्रद्भुत है संसार ? ।। १६२ से १६५ ।।
ग्रहो दुरात्मनां नूनं दुराचारेण नश्यति ।
इहामुत्र सुखं सर्वं ढौकन्ते दुःखराशयः ॥ १६६ ॥
अन्वयार्थ - ( अहो ) आश्चर्य है ( नूनम ) निश्चय ही ( दुराचारेण ) व्यभिचार रूप आचरण से ( दुरात्मनाम् ) दुर्जनों का ( इहामुत्र) इस लोक व परलोक का ( सर्वम) सम्पूर्ण ( मुखम् ) सुख ( नश्यति) नष्ट हो जाता है तथा ( दुःखराशयः) विविध विपत्ति समूह (ढोकन्ते) प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ - महान आश्चर्य है कि दुराचार के द्वारा दुराचारियों के उभय लोक सम्बन्धी समस्त सुख हवा हो जाते हैं । उन पर सर्वत्र संकटों के बादल घिर प्राते हैं । अर्थात् जिधर जॉय उधर ही उन पर विपत्तियों गजब ढाहती हैं। एक क्षण भी सुख प्राप्त नहीं होता । बेचारे धनिक धवल सेठ दुर्बुद्धि के वश हुआ अत्याचार में पडा, दुराचार की भावना से अपने को नरकगामी बनाया। क्षण भर में कायापलट हो गई । जहाँ एक क्षण पूर्व महासुभट को ट भट शिर पर पंखा भल रहा था वहाँ दूसरे क्षण उसकी आत्मा शूलों की शैया पर असहाय संताप ज्वाला में झुलसने लगी । स्पर्शनेन्द्रिय लम्पट की यही दुर्दशा होती है। यह काम महा नीच ओर दुःखद है। जो इस मदनवेदना से पीडित हो अनधिकार चेष्टा करते हैं वे दुर्गति के पात्र होते ही हैं ।। १२६ ।।
धिक् कार्म धिक् दुराचारं धिक् परस्त्री कुचिन्तनम् । येन प्राणी विमूढात्मा प्रयात्येवमधोगतिम् ॥ १६७॥
ततो भव्यः प्रकर्त्तव्यं परस्त्री संगमोज्झनम् । येन स्वर्गापवर्गीरू सम्पदां प्राप्यते सुखम् ।। १६८ ।। शुद्धात्मनां स्वभावेन नश्यन्ति विघ्न कोटयः । जायन्ते विश्वशर्माणि ह्यत्रामुत्र स्वयं शुभात ।।१६६॥
अन्वयार्थ - ( कामम् ) मदनपीडा की ( धिक् ) धिक्कार है ( दुराचारम) दुराचार
को ( धिक् ) धिक्कार ( परस्त्री) परमारी ( कुचिन्तनम् ) की दुरभिलाषा को भी ( धिक् ) धिक्कार है ( येन ) जिसके द्वारा ( मूढात्मा ) दुर्बुद्धि (प्राणी) मनुष्य (अधोगतिम) दुर्गति को (एव) ही ( प्रयाति) जाता है ।