Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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|| अथ षष्टमः परिच्छेदः॥
अथैकदा सुधीस्तत्र, दलबर्तन पत्तने । स श्रीपाल प्रभुसौख्यं भुञ्जन् श्रीजिनभक्तिभाक् ॥ १॥ तत्र यातान् वणिग्वर्यान्, संविलोक्य जगाद तान् । कुतस्समागतायूयमपूर्वं च वदत्व हो ||२||
श्रन्वयार्थ - ( अथ) अथानन्तर (एकदा) एक समय ( तत्र ) वहाँ ( दलवर्तन ) दलवर्तन नामक ( पत्तने) रत्नद्वीप में (सः) वह ( सुधीः) बुद्धिमान ( श्रोजिनभक्तिभाक् ) श्री जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में लीन ( प्रभुः ) महान ( श्रीपाल : ) श्रीपाल भूपति ( सौख्यम् ) सुख ( भुञ्जन् ) भोगते हुए विराजे, (तत्र ) उस समय वहाँ ( यातान् ) प्राये हुए ( वणिक्वर्यात्) श्रेष्ठ व्यापारियों को (संविलोक्य) अच्छी तरह देखकर (च ) और ( तान् ) उनको ( जगाद ) बोला (पूर्वम्) पहले नहीं देखे गये ( यूयम् ) तुम लोग ( अहो ) भो महाशय : ( कुतः ) कहाँ से ( समागताः ) आये हैं (तु) कहिए
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भावार्थ - - अब श्रीपाल जी भार्या ओर राज्य पाकर श्रानन्द अपना समययापन करने लगे । दलवर्तन रत्नद्वीप में अनेकों व्यापारी आते जाते थे। बुद्धिमान् श्री जिनचररणाम्बुजों का भ्रमर श्रीपाल महाराज अपने प्राप्त राज्य का उपभोग करने लगा। उसके बाद एक नवीन कथानक प्रारम्भ होता है । उस द्वीप में कुछ अभूतपूर्व वणिक्जनों का आगमन हुआ । महाराज श्रीपाल ने उन वणिकों को पहले कभी नहीं देखा था । अतः प्रद्भुतजनों को देख, आश्चर्य से उनको देखा और पूछा कि "आप लोग कहाँ से पधारे हैं ?" अपना परिचय कहिये ? ।।१२।।
तेऽपि नत्वा जगू राजन् कुण्डलाख्य पुराद्वयम् । समागताः प्रभुस्तत्र मकरध्वज संज्ञकः ॥ ३॥ कर्पू रतिलका तस्य राज्ञी जाता गुणान्विता । तयोर्द्वयोस् समुत्पन्नः पुत्रो मदनसुन्दरः ||४|| तथा वभूव सत्पुत्रोऽमरसुन्दर संज्ञकः । चित्रलेखा वृहद् पुत्री स्युरन्या शतकन्यकाः ॥५॥ जगद्रेखा सुरेखाऽथ गुणरेखा ततः परा । मनोरेखाse जीवन्ती रम्भा भोगवती सुता ॥६॥