Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छ्रेट
गजाश्वरथ पादाति दासी दासादिकं बहु | सत्यं सर्वत्र पुण्येन भव्यैस्सम्प्राप्यते ध्रुवम् ॥ १४॥ प्रथात्रैव सुखेनासौ यावदास्ते प्रियान्वितः । ताछ तो मुदागत्य तं नत्वेदं वचोऽब्रबीत् ॥ १५ ॥
श्रन्वयार्थ - ( तदा तत्र (सः) उस ( सन्तुष्टः ) सन्तुष्ट ( मकरध्वजः ) मकरध्वज (राजा) भूपति ने (अपि) भी ( श्रीपालाय ) श्रीपाल दामाद को ( गजाः ) हाथी ( अश्वाः ) घोडे ( रथः ) रथ ( पदातिः) पैदल सेना ( दासी दास) सेविका सेवक (नाना ) अनेकों (बहु ) बहुत से ( रत्नादि) रत्न माणिक्य, पन्ना आदि नवरत्न ( सम्पदः ) विभूति ( तस्मै ) उस बाई को (ददी) दहेज में प्रदान की, (सत्यम् ) नीति है ( पुण्यन) शुभकर्म से ( भव्ये :) भव्य जीवों के लिए ( स ) सब जगह ( ध्रुवम् ) निश्चित रूप से ( सम्प्राप्यते ) सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं (थ) विवाह बाद (असौ ) वह श्रीपाल ( यावत्) जबकि ( अत्रैव ) इसी नगर में ( प्रियान्वितः ) अपनी कामिनियों के साथ ( सुखेन ) सुख से (आस्ते ) विराजा ( तावत् ) तब ही ( मुदा) हर्ष भरा ( दूतः ) दुत ( आगत्य ) आकर (तम् ) उसे ( नत्वा) नमस्कार कर ( इदम् ) इस प्रकार ( वचः ) बचन ( अब्रवीत. ) बोला ।
भावार्थ - - अपनी प्रिय एकसी कन्याओं का विवाह कर मेदनीपति मकरध्वज को