Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद
न दत्तं न स्वयं भुक्त संचितं कृपणौर्धनम् ।
धूतचोराग्निभूपायः पश्यतां सकलं गतम् ॥४२॥ अन्वयार्थ--(शृङ्गारगौरी) शृङ्गारगौरी (इति) इस प्रकार (प्राह) बोली ("पश्यतांसकलंगतम्") देखते-देखते सब चला गया" (श्रीपाल:) श्रीपाल ने (तस्य) उस प्रश्न का (उत्तरम् ) उत्तर (स्वमनीषया) अपनी बुद्धि से (इति) इस प्रकार (उबाच) दिया बोला (कृपणीः) कंजूष का (धनम् ) धन (न दत्तम्) न तो दिया (न) न (स्वयम् ) स्वयं (भुक्तम्) भोगा अतः ( तचौराग्निभूपाद्य :) जुआ, चोरी, अग्नि राजादि द्वारा (पश्यताम् । देखते-देखते (सकलंगतम्) सारा ही चला गया ।
___ भावार्थ--द्वितीय शृङ्गारगारी कन्या ने श्रीपाल के समक्ष यह समस्या रखी कि "देखते देखते सब चला गया" (पश्यतां सकलं गतम्) । उसके उत्तर में श्रीपाल ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से उत्तर दिया कि कञ्जूष व्यक्ति न तो दान देता है और न स्वयं ही भोगता है अत: पुण्य क्षीण होते ही उसके धन को देखते-देखते राजा ले लेता है, अग्नि में जल जाता है, चोर ले जाते हैं अथवा जुना में हार जाता है। कब कैसे कहाँ जाता है पता ही नहीं चल पाता है ।।४१, १२॥
पौलोमीत्यवदद्वाक्यं तेषामिष्टं हि दुःश्रुतम् । तस्या उत्तरमाप्तोक्तया ददौहितं विचक्षणः ॥४३॥ प्रहन्मुखेन्दु सजातं जन्ममृत्यु जरापहम् । ज्ञानामृतं न यैः पीतं तेषामिष्टं हि दुःश्रुतम् ॥४४।।
(स नरः पाप पण्डित इति च पाठः) अन्वयार्थ--तीसरी (पौलोमी) पौलोमी (इति) इस प्रकार (वाक्यम्) वचन (अवदत् ) बोली ("तेषामिष्टं हि दुःश्रुतम्" उनके लिए निश्चय ही इष्ट सिद्धि असंभवश्रुत है, (विचक्षण:) चतुर श्रीपाल ने (आप्तोक्त्या) सर्वज्ञ प्रणीत उक्ति द्वारा (हितम्) हितकारी (उत्तरम्) उत्तर (ददौ) दिया, (जन्ममृत्युजरापहम् ) जन्म, मरण, और बुढ़ापे का नाश करने वाला (अर्हन्मुखेन्दुसंजातम) अर्हन्त भगवान के मुख रूपी कमल से उत्पन्न (ज्ञानामृतम्) ज्ञान रूपी अमृत (यः) जो (न) नहीं (पीतम्) पिया गया (तेषाम् ) उनके (इष्टम् ) इष्ट कार्य (हिं) निश्चय से (दु:श्रुतम्) कठिन श्रुत हैं। दूसरे प्रकार से पाठान्तर का उत्तर
दया धर्ममजानानो निर्ग्रन्थानाम सेवकः
योऽश्रुतोऽहत्प्रणोतार्थं स नरः पापपण्डितः ॥४५।। अन्ययार्थ-(यः) जो (दयाधर्ममजानानः) दयाधर्म को नहीं जानता. (निर्ग्रन्था