Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र षष्टम परिच्छेद]
[३५५ (पदानि) पदों को (स्वधिया) अपनी बुद्धि से (बुधः) भो बुद्धिमन् (आशु) शीघ्र (जगौ) कहिए।
भावार्थ -प्रथम कन्या सौभाग्यगौरी, इस प्रकार बोली हे भद्र ! बुद्धिमन् मैं समस्या रखती हूँ आप अपनी बुद्धि से शीघ्र पूर्ति करिये । प्रथम चरण है "सिद्धि साहस तो भवेत् ।" इसके तीन चरण आप बनाइये ।।३।। इस प्रकाप्रकार सुन श्रीपाल जी निम्न प्रकार श्लोक के तीन चरण जोडकर श्लोक पूरा करते हैं--
प्रात्मनो जायते सत्यं, पुण्यात्संजायते धनम् ।
वैवात्संजायते बुद्धिस्सिद्धि साहसतो भवेत् ॥३६॥ अन्वयार्थ---(सत्यम् ) सत्य (आत्मनः) मात्मा से (जायते) प्रकट होता है, (धनम् ) धन (पुण्यात) पुण्य से (संजायते) प्राप्त होता है (बुद्धिः) मति (दैवात्) भाग्य से होती है (सिद्धिः) कार्य सिद्धि (साहसत) बर्थ से (ये) होती है।
भावार्थ -सत्य धर्म, प्रात्मा का स्वभाव है । स्वभाव स्वभाववान से भिन्न नहीं हो । अत: सत्यधर्म का प्रादुर्भाव प्रात्मा से ही होता है। पूर्वोपाजित अथवा तद्भव उपाजित पुण्य के होने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । सदबुद्धि-सम्यक् मति देवाधीन-भाग्य के अाधीन मिलती है । तथा कार्यसिद्धि पराक्रम-साहस से होती है। कायर के मनोरथ तो बिजली की चमक समान आये-गये हो जाते हैं ।।३८, ३६।।
"सिद्धिस्साहसतस्सतामिति च पाठः" उपर्युक्त समस्या में यह भी पाठ है । अर्थ एक ही है ।।३६॥ दूसरे प्रकार की पंक्ति की पूर्ति निम्न प्रकार है--
स्वात्माधीनोऽत्र सत्यः स्याद्बुद्धिर्दैवानुसारिणी।
अत्र मा कुरु भो भ्रान्ति, सिद्धिस्साहसतस्सताम् ॥४०॥ अन्वयार्ग-(अत्र) यहाँ संसार में (सत्यः) सत्य (स्वात्माधीनः) प्रात्मा के आथित्त (बुद्धिः) मति (देवानुसारिणी) देव-भाग्यानुसार होती है (अत्र) इसमें (भ्रान्ति) विभ्रम (मा) नहीं (कुरु) करो (भो) हे जन हो (सताम् ) सज्जनों को (सिद्धिः) सिद्धि (साहसतः) साहस से (स्यात्) होती है।
भावार्थ--इस लोक में संसारी जीव को सत्य की उत्पत्ति आत्मा से. बुद्धि भाग्य से होती है इसमें कोई संदेह नहीं है तथा सिद्धि साहस से होती है ।।४।।
प्राह शृङ्गारगौरीति पश्यतो सकलंगतम् । श्रीपालरुत्तरं तस्येत्युवाच स्वमनीषया ॥४१॥