Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद
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शालीन महापुरुष क्या निद्यकुल में हो सकते हैं ? किन्तु राजा को विश्वास दिलाना अनिवार्य है। अत: आप मुझ पर अनुकम्पा कर अतिशीघ्र याथा तथ्य अपने उत्तम कुल का परिचय दीजिये। अब हास्य छोडिये । यह अपेक्षा का समय नहीं, परिहास का अवसर नहीं । आपको अपना सही परिचय देना ही होगा। यदि आप * नही बताइयेगा तो निश्चय हो वैषय के शाप के पूर्व यहीं आपके चरग सानिध्य में प्राण विसर्जन कर दूगी । हे प्राणेश ! इसमें तनिक भी सन्देह न समझे ? इस प्रकार अपनी प्राण प्रिया का हल संकल्प और उचित विचार ज्ञात
कर श्रीपाल को उत्तर देना पड़ा .. ।।१४०. १६१।।
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इत्याग्रहेण सोऽप्याह शृणु त्वं प्रियवत्सले । श्रेष्ठिनो धवलस्यास्य पोते कान्ताऽस्ति मेऽधुना ।।१४२॥ नाम्ना मदनमञ्जूषा विद्याधर नृपात्मजा । सा मे सर्व विजानाति कुलवृत्तादिकं घबम् ।।१४३।। तां सती पृच्छ शोकार्ता मद् वियोगावि तापनीम् । इत्येवं गुणमालाशु श्रुत्वा पतिमुखाम्बुजात ॥१४४।। शिवकां सा समारुह्य गत्वा तत्र व्रत सती। शुभ भावयुतां वीक्ष्य गुणमालाति शोकिनी ॥१४५।। सखीववेवं सद्भत्त: श्रीपालस्य कुलक्रमम् ।।
तच्छ त्वाप्यमुदा साह श्रीपालः कोऽत्र सुन्दरि ! ॥१४६।। अन्वयार्थ--(इति) इस प्रकार (आग्रहेण) प्राग्रह-प्रार्थना करने से (स:) वह श्रीपाल (अपि) भी (ग्राह) बोला (प्रियवत्सले) वात्सल्यमयी प्रिय (स्वम ) सुम (धण )