Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद नारियो अश्रुपात करती दौड़ पडी, कोई राजपुत्री के आकस्मिक दुर्भाग्य पर अफसोस करती, कोई राजा को कोशाती, कोई वृद्धा राजा की बुद्धि को निन्दा करती चली जा रही थीं। कोई राजकुमारी के सौभाग्य की चिन्ता कर रो रही थी तो कोई राजा की जल्दीबाजी पर बड
बडा रही था। अनेकों प्रकार से अफवाह फैल गई । सर्वत्र दु:ख और शोक का वातावरण छा गया उसी समय एक दासी दौड़ती हुयी राजकुमारी गुणमाला के पास आई और बोली "हे सुन्दरि, भो भोली! अब शृंगार क्या कर रही हो ? किसके लिए यह साजसज्जा है ? छोडो सौभाग्य चिन्हों को, अरी सुनतो आज तेरे सौभाग्य का तारा सदा को प्रस्त होने जा रहा है । तुम्हारे प्राणवल्लभ-पति को राजा ने मृत्यु दण्ड दिया है । कुछ मातङ्ग जो अभी कुछ समय पूर्व राजसभा में नृत्यादि कर रहे थे, उनका कहना है कि श्रीपाल हमारी जाती वंश का है। , इसों से राजा कुपित हो गया है धे.पाल इस विषय में मौन है। प्रतः भूपति का क्रोध और अधिक
भडक गया और उसने उसे जल्लादों के हाथ में देकर उसके दो टुकड़े करने की आज्ञा घोषित की हैं।" सुनते ही कुमारो पर गाज गिरी। मानों वज्र आ पड़ा। बिपत्ति का पहाड पाने पर भी उत्तम-बुद्धिमान जन धैर्य और विवेक नहीं स्वो देते । पुरुषार्थ से काम लेते हैं। प्रस्तु, कुमारी तत्क्षण शूलोरापण स्थान पर जाने को उद्यत हुयी और अविलम्ब जा पहुंची ।।१३६ १३७।।
तवाकण्यं तंगत्वा श्रीपालं प्रत्युवाच सा । ग्रहो कान्त जिनेन्द्रोक्त ज्ञात सिद्धान्त सन्मते ॥१३८।। नाथ मत्कृपयात्मीयं कुलं कथयमेधूना ।
ततो वीरोऽवदत् कान्तवदन्येतेऽत्रमत्कुलम् ॥१३॥ अन्वयायं--(तदा) दासी द्वारा श्रीपाल के मारने की बात (आकर्ण्य) सुनकर (द्र तम) शीघ्र ही (गत्वा) जाकर (सा) वह (श्रीपालम ) श्रीपाल के (प्रति) प्रति (उवाच)
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