Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद अन्वयार्थ -- (तदा) उन नीचों के असद् प्रदर्शन से उस समय (राजा) भूपति (धनपालः) धनपाल (महाविश्मय) अत्यन्त आश्चर्य (शोकभाक) एवं शोक भरा (जगाद) बोला (भो) हे (श्रीपालः) श्रीपाल (एतत्) यह (किम् ) क्या ? (मे) मुझ से (द्र तम् ) शीघ्र (सत्यम्) यथार्ग (सा) कहीं।
भावार्थ-उन असद्भाषी नर्तक-नर्तकियों के इस प्रकार वार्तालाप, रुदन-शोक प्रदनि को देखकर महाराज धनपाल को बहुत आश्चर्य हुआ। वह सोच भी नहीं पाया था कि उसके साथ इस प्रकार का धोखा हो सकता है । क्योंकि बोतरागी मुनिराज की भविष्यत्रागो के अनुसार उसने अपना कान्यारत्न अपार संभव सहित उसे दिया था। इस समय वह भोक से पीडित था क्योंकि कुल-बंग, जाति विहीन व्यक्ति जवाई हो गया । स्वयं इसका कुलवंश दूषित हो गया । अत. कन्या-पुत्री का क्या होगा ? वह घर की रही न घाट को" अब क्या करें ? अत: श्रीपाल हो प्रमाण है अब पूछे भी ता किसे ? अस्तु बह-राजा श्रीपाल ही से इसका रहस्य खोलने को कहता है । हे श्रोपाल ! तुम सच-सच बताओ, यह सब क्या है ? तुम कौन हो? यह किस प्रकार काण्ड हुआ है स्पष्ट करो ? क्या इनका कहना सत्य है ? यदि सत्य है तो तुम राजद्रोही महापातको दण्ड के पात्र हुए। यदि इनका स्वांग गलत है तो तुम अपना सही कुल-वंश-जाति सिद्ध करो अन्यथा तुम्हें महादण्ड का पात्र होना होगा । शीघ्र कहो यह सब क्या है ? ये कौन हैं ? इनसे तुम्हारा क्या सम्बन्ध है ? आखिर इसका रहस्य क्या
तन्निशम्य सुधीस्सोऽपि श्रीपालो निजमानसे ।
कर्मोदयोऽयमितत्युच्च स्तूष्णीभावेन संस्थितः ।।१३४।।
अन्वयार्थ--(सः) वह (सुधीः) बुद्धिमन् (श्रीपाल:) श्रीपाल (अपि) भो (तत) उसे (निशम्य) सुन कर (निजमानसे) अपने मन में (अयम् ) यह (कर्मोदयम् ) कर्म का उदय है (इति) ऐसा विचार (उच्चैः) पूर्णत: (तूष्णोभावेन) मीन भाव से (संस्थितः) रह गया ।
भावार्थ--भूपति का आदेश सुनकर तथा उन नीच-अज्ञानी तुच्छ भाण्डो-चाण्डालों की कतत देखकर श्रीपाल को न प्रामचर्य था न विस्मय । तत्त्वज्ञ को संसार में न कुछ आश्चर्यकारी होता है न भयप्रद । अतः वह मन में तत्त्व विचार करता है । प्राणी अपने उपाजित कर्मानुसार दुःख-सुख का भागो होता है । यह मेरा ही कटुकर्म का फल है । अशुभोदय का यह दृश्य अवश्य भोगना होगा । चलो देखें यह कर्म क्या विडम्बना प्रदर्शित करता है ? इस प्रकार कर्म सिद्धान्त का स्मरण कर तथा यह सोचा कि मेरा गवाह यहाँ कौन है ? कोई नहीं । अत: समय आने पर इन्हें देखा जायेगा । अभी तो इस नाटक का और एक दृश्य देखना चाहिए" इस प्रकार ऊहा-पोह कर वह पूर्णतः शान्त-मीन हो गया। "मौनं सम्मति लक्षणम्' युक्ति के अनुसार राजा का कोप इसके मौन से असीम हो गया । क्रोधाविष्ट मनुष्य को विवेक कहाँ ? धर्य भी कहाँ ? बस क्या हुआ ? ||१३४॥