Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ।
वाणिज्यार्थं समायातः श्रीपालोऽयं भटोत्तमः । रत्नद्वीपे जिनेन्द्राणां त्रैलोक्यतिलका ह्वये ।। १५४॥ चैत्यालये महावज्रकपाटोद्घाटने प्रभो । प्राप्त मत्सङ्गमो धोरो मद्रूपासक्त चेतसा ।। १५५॥ पापनाश्रेष्ठिना तेन क्षिप्तो घोरे महार्णवे । सुधीः स्वपुण्ययोगेन समुत्तीर्थ महार्णवम् ॥ १५६ ॥ इहागत्य प्रभोनून' जमाताऽभवत्तराम् । श्रागतेन तेनाऽपि धवलेन दुरात्मना ।। १५७ ॥ महाकपटकूटेन मारणार्थं च साम्प्रतम् । एतद्विरूपकं देव ! सर्वच शृण प्रभो ।। १५८ ।।
जिन सिद्ध महात्म्येन बालोऽयं हि सवामलः । चाण्डालः कथ्यते केन पापिष्ठेन प्रभी वद ।।१५।।
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अन्वयार्थ - ( अयम् ) यह (भटोत्तमः ) बीरशिरोमणि ( श्रीपाल : ) श्रीपाल (वाणिज्यार्थम् ) व्यापार करने के लिए (रत्नद्वीपे ) रत्नद्वीप में ( समायातः ) श्राया ( तत्र ) वहाँ (त्रैलोक्य तिलकाह्वये) त्रैलोकतिलक नामक ( जिनेन्द्राणाम् ) जिन भगवान के ( चैत्यालये) सहस्कुट त्यालय में (प्रभो ) हे राजन् ( महावज्रकपाटोद्धाघने) अत्यन्त र वज्रकपाटों के खोलने पर ( श्रीर: ) इस धीर ने ( मत् ) मेरा ( सङ्गमः ) सङ्गम मुझे पत्निरूप में ( प्राप्तः ) प्राप्त किया, पुन: ( तेन) उस ( मपासक्त ) मेरे सौन्दर्य से प्रासक्त ( चेतसा ) चिंत्त हुए (पापिना) पापी (श्रेष्ठ) धवल सेठ ने (घोरे ) भयङ्कर ( महारांबे) विशाल सागर में (क्षिप्तः ) गिरादिया (स्व) अपने (पुण्ययोगेन) पुण्यकर्मोदय में ( सुधीः ) बुद्धिमान ( महारणवम् ) महासागर को (समुत्तीर्य) पारकर तैरकर ( इह ) यहाँ ( आगत्य ) आकर ( प्रभो ! ) हे भूपेन्द्र ( नूनम् ) निश्चय ही (ते) श्रापका ( जामाता ) जँवाई (अभक्तराम् ) हुआ है यह निश्चय समझो किन्तु (अ) यहाँ (अपि) भी ( श्रागतेन ) आये हुए (तेन) उस (दुरात्मना ) निद्यात्मा ( महाकपटकूटेन ) महाछल की खान ( धवलेन ) धवलं सेठ पापी ने (च) और भी ( साम्प्रतम् ) इस समय ( मारणार्थम्) उसे मार डालने के लिए ( एतत् ) यह ( सर्वम् ) सम्पूर्ण ( विरूपकम् ) कपट स्वांग(च) रचा है (देव! ) हे प्रजापालक ( प्रभो । हे राजन् (शृण) सुनो, (अयम ) यह ( बाल: ) कुमार ( जिनसिद्ध माहात्म्येन) जितभगवान और सिद्धच पूजा के महा प्रभाव से ( सदा ) सतत (अनलः ) पवित्र निरोग है ( प्रभो ) हे राजन् (केन) किस ( पापिष्टेन ) पापात्मा ने ( चाण्डालः) चाण्डाल ( कथ्यते ) कहा है ? ( वद ) मुझसे कहो तो ?
भावार्थ - मदनमञ्जूषा आगे वर्णन करती है कि यह महाभाग, वीराणी, सुभटशिरोमणि श्रीपाल रत्न व्यापार करने के लिए रत्नद्वीप में आये थे । वहाँ के उद्यान में त्रैलोक्य