Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ धोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छे
परोपकार सद्रत्न रोहणाद्रिस्त्वमेव हि । चारु सौभाग्य सन्दोह स्सुधीः सन्मान्य भक्तितः ॥ १७२ ॥ कृपां विधाय भो भव्य ! समागच्छ पुरं सुधीः । मत् कृताघरजोराशि क्षालनाय क्षमाजलः ।। १७३ ।। इत्यादि मधुरैर्वाक्यं श्रीपालं नृपं सदा । कारयित्वा क्षमां गाढं विनयेन महोत्सवैः ।। १४७।।
वस्त्राभरणसन्दोहैः सुधीः सम्मान्य भक्तितः । मत्तमातङ्गमारोप्य जय कोलाहल निस्वनः ॥१७५॥
चलच्चामर सच्छत्र ध्वजाद्यैः परिमण्डितम् । नानावादित्र सन्नादैर्दानमानादिभिस्तराम् ॥१७६।।
समानीय पुरं रम्यं गृहे संस्थाप्य सादरम् । पुनः स्त्रीयुग्मसंयुक्त रत्नाद्यैस्समपूजयेत् ॥ १७७॥
अन्वयार्थ -- ( धनपालः) धनपाल (राजा) नृपति (अवदल) बोला, (त्वम् ) आप
( मन्दरादपि ) मेहपर्वत से भी अधिक ( महान् ) महान ( सागरान् ) समुद्र से (अपि) भी अधिक ( गम्भीर : ) गहरे (क्षमागुणैः) क्षमादि गुणों से ( क्षमासार : ) क्षमा के आधार स्तम्भ हो ( स्वया) तुमने (शील ) ब्रह्मचर्य के ( प्रवाहेन ) प्रवाह धारा से (सिन्धुः ) सागर को (अपि) भी ( जित : ) जीत लिया, ( सहकुलेन ) उत्तम, निर्दोष कुल से ( कलङ्क ) कलङ्की (ङ्गी) शरीर वाले ( चन्द्रः ) चन्द्रमा को (अ) भी तिरस्कृतः ) पराभूत कर दिया. (श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्राणाम) उभयलक्ष्मी के ईए जिनेन्द्र प्रभुओं के ( चरणार्चन ) चरण कमलों की करने पूजा मैं ( कोविदः ) वतुर - निष्णात तथा ( त्वम् ) आप (एव) ही (सत्तावदानेन ) उत्तम - मध्यमन्य पात्रों को दान देने से ( द्वितीयः ) दुसरे नम्बर के ( दानकृन ) दान करने वाले (अवादि ) कहे गये हो, (परोपकारसलरोहणः) पर का उपकार रूपी उत्तम रत्न के उल करने वाले (हि) निश्चय से ( त्वम् ) आप (एव) ही ( अद्रिः ) पर्वत हो, इस प्रकार ( सुधीः ) श्रीपाल विर को ( भक्तितः ) भक्ति से ( सन्मान्य) सम्मानित कर, ( भो ) बोला कि हे (मुधी:) विदाम्बर! ( भव्य ) भव्य ( कृपाम् ) अनुग्रह ( विधाय ) करके ( मन ) मेरी (कृन) की गई (घ) पाप (रजोराशि) रूपी धूलि समूह को (क्षभाजलैः । क्षमारूपी जल मे ( क्षालनाय) धोने के लिए (पुरम् ) नगर-पुर में ( समागच्छ ) आइये ( इत्यादि) इसी प्रकार अन्य भो (मधुर) मीठ वचनों से (तम् ) उस ( थोपलम् ) श्रीपाल (नृपम् ) राजा को (सदा) सर्वथा (गाई) प्रत्यन्त (क्षमांम) क्षमा ( कारयित्वा करवाकर (विनयेन) विनय पूर्वक (वस्त्राभरणसन्दोहैः ) नाना प्रकार उत्तमोत्तम वस्त्राभूषणों से ( सुधीः ) तस्बन श्रीपाल की ( भक्तितः ) भक्ति से ( सम्मान्य) सम्मानित कर ( मत्तमातङ्गम) उन्मत्तगजराज पत्र (आरोग्य)