Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद शुद्धि के लिए (जना मतदक्षः) जनमत में चतुर- सुधीः) बुद्धिमानों को (नित्यम्) सदैव (त्याज्यम्) त्यागने योग्य है ।
भावार्थ ---जनशासन के घेत्ता, बुद्धिमानो को चर्म के डब्वे, कुप्पो आदि में स्थापितरखे हुए घी, तेल, हींग, जलादि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। चरश, मशक आदि में भरे पानी का पान नहीं करना चाहिए । क्योंकि इनका सेवन करने से मांस भक्षरग का दोष-पाप होता है। ये पदार्थ मांस त्याग व्रत के अतिचार हैं। निर्दोषव्रत की सिद्धि के लिए इनका सर्वथा त्याग करना चाहिए । अर्थात् चर्म से पशित कोई भी वस्तु नहीं खाना चाहिए ।।११।।
शौचायकर्मणे नेप्ट कथं स्नानाविहेतवे ।
चर्मवारि पिवन्नेष व्रती न जिनशासने ॥१२॥ अन्वयार्थ --चर्मवारि (शौचाव) मल मूत्र विसर्जन (कर्मणे) कार्य के लिए (न इष्टम ) इष्ट नहीं, योग्य नहीं पुन: (स्नानादि) स्नान आदि क्रिया (हेतवे के लिए (कथम ) किस प्रकार योग्य है ? (चर्मवारि) चरश-मशक का चमडे का पानी (पिवन्) पीता हुआ (एषः) यह पुरुष (जिनशासने) जिनागम में (व्रती) व्रती (न) नहीं होता।
भावार्थ ---चर्म निर्मित चरश या मशक आदि में स्थापित जल मल-मूत्र शुद्धि के लिए भी योग्य नहीं कहा, फिर स्नान आदि कार्यो में उसका उपयोग कैसे किया जा सकता है ? अर्थात् नहीं किया जा सकता जो मनुष्य चर्मजल पीता है वह व्रतो नहीं हो सकता है, यह जिनागम का नियम है। अभिप्राय यह है कि व्रती थावक को चमडे से पणित जल का किसी भी कार्य में उपयोग नहीं करना चाहिए । पीना तो पूर्ण निशिद्ध है ही ॥१२॥
तथा सुश्रायकैस्त्याज्या जिनवाक्यपरायणः ।
हिंसा सांकल्पिको नित्यं त्रसानां भयकारिणी ॥१३॥
अन्वयार्थ – (तथा) उसी प्रकार (जिनवाक्यपरायणः) जिनशासन के ज्ञाता (सुश्रावकः) श्रेष्ठ श्रावकों द्वारा (भयकारिणी) भय उत्पन्न करने वाली (साना) त्रस जीवों की (सांकल्पिकी) संकल्पी (हिंसा) हिंसा (नित्यं) नित्य-सदा (त्याज्या) त्यागने योग्य है।
भावार्थ-हिंसा के चार भेद हैं—१. प्रारम्भी २. उद्योगी ३. विरोधी और ४. सांकल्पी । इनमें से श्रावक सांकल्पी हिंसा का त्याग कर सकता है। अर्थात इरादा करके त्रस जीवों का घात करना सांकल्पी हिंसा है । इसका त्याग गृहस्थ जीवन में हो सकता है अतः त्यागना चाहिए । जीवघात से स्वयं का घात करने वाला कर्म बंध होता है। हिंसक स्वयं भय से त्रस्त रहता है । अतएव त्रस हिंसा भय करने वाली है ।।१३।।
देवतामन्त्रतन्त्रार्थ सर्वथा त्रसदेहिनाम् ।। हिंसा सांकल्पिकी त्याज्या जैनापक्षोऽयमुत्तमः ॥१४॥