Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद]
ततस्तेप्रीणिताः प्राहुरित्थं तं प्रति हे प्रभोः । मा स्वामित्वमस्माकम् कृपालुस्सुभटानिमः ।।६।। दुष्टानामपि चौरानामस्माकं चापि शर्मकृत् । प्रयंकोऽपि महानुच्चरोरपि महीतले ॥६॥
अन्वयार्थ--- (ततः) इसके बाद (ते) वे दस्युजन (प्रोणिता:) प्रसन्न हो (तम्) उस श्रीपाल के प्रति (इत्थम्) इस प्रकार (प्राहुः) बोले (हे प्रभो ! ) भो स्वामिन् (त्वम्) आप (धन्यः) धन्य हैं (कृपालुः) दयालु (सुभटाग्रिमः) वीरों में अग्रणीयवीर (अस्माकम् ) हम लोगों (दुष्टानाम् ) दुष्ट (चौरानाम्) तस्करों के (अपि) भी (स्वामिन् ) हे प्रभो ! आप (अस्माकम् ) हमारे लिए (शर्मकृत) शान्तिप्रदायक हैं। (च) और (अपि) भी है (अयम् ) यह (कोऽपि) कोई भी (महीतले) भूमितल पर (मेरो:) सुमेरू की अपेक्षा (अपि) भी (उच्चैः) महामना (महान ) महापुरुष हैं।
भावार्थ - भोजन पान कर सन्तुष्ट हुए। सभी थीपाल जी के इस सव्यवहार को देखकर आश्चर्य और हर्ष से अभिभूत थे। वे कहने लगे, हे प्रभो! आप कोई महापुरुष हैं। परम दयालु हैं । बीरों में वीर हैं । महासुभट हैं । हम जैसे ऋर, दुष्ट, पापी चोरों को भी क्षमा प्रदान कर दी। यही नहीं हमें सुख शान्ति प्रदायक आहारार्थ सुपाच्य, सुस्वादु, मधुर पदार्थ देकर महान् उपकार किया । वस्तुत: आप मेरूपर्वत से भी अधिक उन्नत-विशाल विचारज्ञ, विद्वान, पण्डित और कुशल हैं । मेरू अपने स्थान पर भी उन्नत है परन्तु आप की महिमा सर्वत्र मेरुवत् व्यापक है। हे स्वामिन् अाप वस्तुत: यथार्थ पुरुषोत्तम हैं ।।८६, ६०||
दत्तं त्वयाऽभयं दानं प्रशस्येति मुहमुहः।
त्वत्समो न गुरूर्मातृपितृबन्धु सुतादयः ।।१।।
अन्वयार्थ - (त्वया) अापने (अभयदानम् ) अभयदान (दत्तम् ) दिया (इति) इस प्रकार (मुहु.-मुहुः) बार-बार (प्रशस्य)प्रशंसा कर कहने लगे (त्वत्समः) आपके सदृश (गुरु:) गुरू (माता) माँ (पितृ) पिता (बन्धु) भाई (सुतादयः) पुत्र आदि कोई भी उपकारी (न) नहीं।
मावार्थ-श्रीपाल के सौजन्य से प्रभावित होकर. अभयदान प्राप्त कर ये चोर-राजा अत्यन्त विनम्र हो गया। अपने साथियों के साथ श्रीपाल की भूरि-भूरि बार-बार प्रशंसा की। वे यशोगान करते हुए कहने लगे । “संसार में आपके समान हित करने वाले गुरू, माता-पिता, भाई-बन्धु, पुत्र-पुत्री प्रादि कोई भी नहीं हैं । अस्तु पाप उनसे भी बढकर हमारे रक्षक, पालक और प्राणदाता हैं । नीतिकारों ने सत्य ही कहा है कि महात्मा वे ही हैं जिनको विकृति उत्पादक कारण होने पर भी विकार न हो । यथा ||११||