Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ]
[ २७१
यदि मैं नहीं प्राप्त करूँ तो मेरा जीवन व्यर्थ है । इसके साथ भोग करने से ही मेरा जन्म सफल है अन्यथा इस वैभव से क्या प्रयोजन ? इस लश्कर का क्या फल ? इस पर्याय का ही क्या फल | अभिप्राय यह है कि वह सबकुछ समर्पा कर भी इस दुर्लभ नारी रत्न को प्राप्त करने को लालायित हो उठा
सत्यं दुरात्मनश्चित पर वस्तु प्रियं सदा ।
रक्तपा पररक्तस्य पानरक्ता यथा सदा ||६||
अन्वयार्थ ( सत्यम् ) ठीक ही है (दुरात्मनः ) दुर्जनों के ( चित्ते) मन में (सदा) निरन्तर (परवस्तु) पराई चीज ( प्रियम्) अच्छी लगती है ( यथा) जिस प्रकार ( रक्तपा ) जोंक (सदा) सतत (पररक्तस्य) दूसरे का खून (पानरक्ता) पीने में लीन रहती है ।
भावार्थ- - इस श्लोक में धवल सेठ की विकार भावना का बडा ही स्वाभाविक aria किया है । उदाहरण भी सर्वविदित रोचक दिया है। निश्चय से तो संसार में अपनी प्रात्मा के प्रतिरिक्त सब कुछ पर ही है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से लोक पद्धति के अनुसार जो जिसका स्वामी कहा या माना जाता है, उसके सिवाय शेष जीवों को वह पर वस्तु है । मालिक की आज्ञा बिना उसे ग्रहण करना चोरी है । महा पाप है। लोक में वह दण्ड का पात्र होता है । दुरात्मबुद्धि faris हो जाने से इस दण्ड आदि की परवाह नहीं करता । वह अपनी पांचों इन्द्रियों का दास होता है । उसकी श्रांखें, मन बुद्धि, हाथ-पाँव आदि हर समय परवस्तु के ग्रहण में लगी रहती हैं। आशा शान्त होती नहीं । विषय सामग्री जिधर दृष्टिगत हुयी कि बस मन नहीं जा अटकता है, मृत्यु की भी चिन्ता नहीं करता । आचार्य कहते हैं स्वभाव के परिवर्तन में कौन समर्थ है ? कोई नहीं । जोंक (एक प्रकार का कीड़ा ) स्वभाव से यदि दूध भरेथन में भी लगा दिया जाय तो भी वह उसका रक्तपान ही करेगी। वह सदा दूसरों का खून ही चूसती है। इसी प्रकार दुष्ट मनुष्य, पापी, व्यसनी सदैव पराई वस्तुओं के ग्रहण में ही लगा रहता है || ६ ॥
ततः कामाग्निसन्तप्तो गृहीतो वा पिशाचकैः नानाविध विकारोऽभूदुन्मत्त इव पापधी ॥७॥
अन्वयार्थ - ( ततः ) इसलिए ( पापधी :) पापी धवलसेठ ( कामाग्निः ) कामरूपी आग से ( सन्तप्तः ) जलता हुआ ( उन्मत्त ) पागल के ( इव) समान (वा) अथवा (पिशाचकैः ) पिशाच द्वारा (गृहीतो ) ग्रस्त हुआ हो, इस प्रकार ( नानाविध ) अनेक प्रकार से ( विकार: ) विकार चेष्टा करने वाला (अभूत) हो गया ।
भावार्थ - श्रीपाल को रमणी - पुत्रवधू सदृश मदनमञ्जूषा पर आसक्त उस दुष्ट बुद्धिबल सेठ की दशा पिशाच, भूत-प्रेत आदि से ग्रसित जन स हो गई । वह होश - हवास सब भूल गया । हिताहित बुद्धि नष्ट हो गई। उस पापी की चेष्टा उन्मत्त के समान हो गई । पागल के समान हिताहित भूलकर मात्र उस रूपसुन्दरी के धसान में एकाग्र हो गया ।