Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद अन्वयार्ग--(भूपतिः) राजा (प्राभृतम् ) भेंट को (वोक्ष्य ) देखकर (च) और (सम्भाषणम ) कुशल समाचारादि विषय में बात-चीत (कृरवा) करके (पुनः) फिर उचित स्थानादि देकर (सः) उस राजा ने (तस्मै) उस सेठ के लिए (थोपालहस्तेन) श्रीपाल के हाथ से (ताम्बूलम् ) पान-सुपारी ( अदापयत) दिलवायी ।।११२।।
मावा सेठ द्वारा प्रदत्त भेट से राजा प्रसन्न हुआ। उससे यथायोग्य कुशलसमाचार पूछा । पाने का उद्देश्य एवं उसका मार्ग सम्बन्धी समाचार भात किया। उचित आसन दिया। आस्वस्थ बैठ जाने पर उसे सम्मानित करने को राजा ने अपने जंवाई, कोषाध्यक्ष श्रीपाल को उसे पान-सुपारी आदि देने का आदेश दिया। श्रीपाल ने भी यथायोग्य विधि से उसे ताम्बूल दिया ।।११२।।
तदा श्रेष्ठी समालोक्य श्रीपाल महिमास्पदम् ।
स्वाननं स मषीवर्णं चके कोऽयं विचिन्त्ययत् ।।११३।।
त्वया --- (तदा) उस समय (श्रेष्ठी) सेठ (महिमास्पदम् ) महिमाशाली (श्रीपालम ) श्रीपाल को (समालोक्य) भले प्रकार देखकर (अयम् ) यह (क:) कौन है ? (विचिन्तयत्) मन में विचारते हुए (स) उसने (स्वाननम् ) अपने मुख को (मषीवर्णम ) काला (चक्र ) बना लिया । भावार्थ-ताम्बूल देने वाले श्रीपाल पर दृष्टि पडते ही सेठ जी का हाल बेहाल हो
गया । वह आँख गड़ाकर देखने लगा। यह कौन है ? यह विचार करते ही उसके चेहरे का रङ्ग उड गया। मुख काला पड़ गया। मानों काली स्याही पुत गई हो । प्राश्चर्य और भय से कम्पित हो गया। क्षणमात्र में न जाने कितने विकल्प पाये और चले गये । वह भ्रम में पड़ गया यह सत्य है या स्वप्न ? मैं क्या देख रहा हूँ ? यह कौन हो सकता है ? यदि वही श्रीपाल है तो पाया कैसे ? बच गया फिस प्रकार ? अब होगा क्या यदि वही है तो ? इत्यादि न जाने कितने तर्क-वितर्क हुए उसके मानस में । फिर भी वह किसी प्रकार भी धैर्य न पा सका ||११३।। प्राचार्य कहते हैं
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सम्जनं वीक्ष्य दुष्टात्मा दुर्जनो दुर्मदो भवेत् । भास्करस्योदये युक्तं घूकः स्यादन्धकः कुधीः ।।११४॥