Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद]
[:३१५ नानारूपेश्च नृत्यैश्च वादिश्च मनोहरैः । प्रेषणश्चलनश्चापि सस्त्रीकाहावभावकः ॥१२४।। गानादिभिस्तदासर्वे रञ्जयन्ति स्म भूपतिम् । सम्प्रदर्थ कलासर्यास्तान सभामनुरजयन् ।।१२५॥ तदा हृष्टो महीनाथस्तेभ्यो दापितवान् धनम् ।
सुधीः श्रीपालहस्तेन वस्त्रादिक समन्वितम् ।।१२६॥ अन्वयार्थ- (ते) वे (अपि) भो (नीचा) नीच (लम्पटा:) लालची (कपटाः) कपटी (च) और (स्वला:) दुर्जन (धनार्थम ) धन के लिए-लोभ से (वेगतः) शीघ्र हो (गजाने) राजा के सामने (गत्वा) जाकर (मन: प्रियम्) मन को अच्छा लगने वाला (रागम् ) रागोत्पादकदृश्य (कृत्वा) करके (नानारूपः) अनेक प्रकार के वेशों से (नृत्यै :) नाचों से (मनोहरैः) सुन्दर (वादिः ) बाजों में (च) और (प्रेषणः) भेजने (च) और (चलनः) हलन-चलन (च) और (अपि) भी (सस्त्रीका) अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ (हाव-भावकः) भों, नेत्रादि अङ्गों का चालान (गानादिभिः) मधुर राग भरे गानादि द्वारा (सर्वे) सर्वजन (भूपतिम्) राजा को (रजयन्तिस्म) प्रसन्न कर लिया (तदा) उस समय (सर्वान्) सम्पूर्ण (तान) उन (कलान) कौशलों को (सम्प्रदश्य) दिखाकर (सभाम) सभा को (अनुरजयन्) प्रसन्न करते हुए, (तदा) तब (हृष्ट:) प्रसन्न (महीनाथः) राजा ने (तेभ्यो) उन नटों को (सुधीः) बुद्धिमान (श्रीपालहस्तेन) श्रीपाल के हाथों से वस्त्रादिकसमन्वितम ) वस्त्रालाङ्कार सहित (धनम् ) धन (दापितवान्) दिलवाया।
भावार्थ--"लोभ पाप का बाप बखाना" युक्ति के अनुसार उन चाण्डालों ने सेठ के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । ठीक ही है “प्रर्थीदोषान्नपश्यति" स्वार्थीजन दोष की ओर दृष्टि नहीं डालते । बे पापो, नीच, धनलोलुप, कपटी, महाक र दुर्जन, लम्पटी शीघ्र ही राजसभा में जा पहुँचे । द्वारपाल से आज्ञा ले राजा की अनुमति प्राप्त करली । अब क्या सपरिबार वे नृपति के मनोभावानुसार नृत्य, गान, नानारूप, वादिन वादन हाथ-पैर संचालन-कुद फांद भोह चलाना, नाक सिकोडना, ओठ चलाना, मुह मटकाना, कमर मटकाना आदि अनेक प्रकार के हाव-भाव ग्रादि प्रदर्शन करने लगे। स्त्रियों के साथ अपनी सम्पूर्ण नाट्य कलाओं का अत्यन्त चतुराई से प्रदर्शन किया । राजा मनोहर रूपराशि और अनूठे वाद्यवादन, नर्तन, गायन पर मुग्ध हो गये । यही नहीं समस्त सभासद् वाह-वाह, साधुवाद करने लगे। चारों और अपूर्व अानन्द की लहर दौड गयो । प्रत्येक सभासद उनकी प्रशंशा के गीत गाने लगे । पोरी-पोरी मटका-चटका कर किया गया नाटक सभी के मन और नयन में समा गया। इस प्रकार स्वर, ताल, लय का संयोजन कर जब समस्त जनों को रब्जायमान कर दिया तो राजा और अधिक मानन्दित हुा । भूपति ने प्रसन्न हो उसी समय अपने विश्वस्त, बुद्धिमान जंवाई श्रीपाल जी को बुलाया और उन नर्तक चाण्डालों या नटों को वस्त्र, अलङ्कार रुपये पैसे प्रादि घन देकर सन्तुष्ट करने की प्राज्ञा दो । मनोषो भोपाल ने भी श्वसुर भूपाल की आज्ञानुसार उनके योग्य