Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद]
[२७५ से किस रच सकोगे नहीं कह सकते . अतः जब अपने नाश का उपाय भूत इस पापबुद्धि का परित्याग करो ॥१६॥
परस्त्री सङ्गमेश्वच लभन्ते लम्पटाश्शठाः ।
बधबन्धादिकोटिश्च नाशं दिव्यकुलात्मनाम् ।।१७।।
अन्वयार्थ-(परस्त्री) परनारी (सङ्गमे) सहवास में (लम्पटाः) लम्पटी (पाठाः) मूर्खजन (अव) इस लोक में ही (कोटि:) करोडों (बधवन्धनादि) बध, बन्धन आदि कष्टों को (च) और (दिव्यकुलात्मनाम्) अपने निर्मल कुल के (नाशम) नाश को (लभन्ते) प्राप्त करते हैं।
भावार्थपराई भार्या को जो लम्पटी, मूर्ख, दुर्बुद्धिजन चाहते हैं । उनके सेवन की इच्छा करते हैं या सेवन करते हैं । उन्हें यहीं इसी पर्याय में करोडों यातनाओं को सहना पड़ता है। राजा द्वारा दण्डित होते हैं, बध, बन्धन, च्छेदन भेदन आदि के कष्ट उठाते हैं । समाज द्वारा तिरस्कार पाते हैं । उस स्त्री के कुटुम्बीजनों से भी ठोके-पीटे जाते हैं। हाथ-पैर टूट जाते हैं । सभी के द्वारा निंद्य हो जाते हैं । अविश्वास के पात्र बन जाते हैं । जहाँ जाते हैं वहीं तिरस्कार पाते हैं ॥१७॥
श्रीपालस्सटेवाऽपि परोपकृति तत्परः।
बोरामणी रणेयेन मोचितस्त्वं च बर्बरात् ॥१८॥ अन्ययार्थ--(च) और (अपि) भी है (परोपकृतितत्परः) परोपकार करने में उद्यत (वीराग्रणी) सुभटों में प्रथम (धीपाल.) श्रीपाल है (येन) जिससे (सङ्कटे) सङ्कटाकीरण (रणे) संग्राम में (त्वम्) तुम (बर्बरात्) बरबर लुटेरों से (मोचितः) छु डाये गये (वा) और भी
भावार्ष—इतना ही नहीं और भी विचारो, वह श्रीपाल महान पुरुष है । सदा परोपकार में तत्पर रहता है । जिस समय तुम दस्युओं से घेर लिए गये, तुम्हारा सारा धनोमाल वे ले गये उस समय किसने रक्षा की ? तुम्हारा धन भो छ डाया और संग्राम में तुम्हें भी बचाया, विजय करायी । उस उपकारी के साथ वञ्चना करना महापाप है। थोडा विचार तो करो । अथवा--||१८|| विचार करो
अस्याऽपि पञ्चने चात्र मत्पापं प्रजायते ।
पूर्व त्वया सुतोऽयं मे भणितमिति धी धनः ॥१६॥ अन्वयार्थ–(प्रयम ) यह (बी धनः) बुद्धिधन का धनी श्रीपाल (मे) मेरा (सुत:) पुत्र है (इति) इस प्रकार (त्या) तुम्हारे द्वारा (पूर्व) पहले (भणितम.) कहा गया था (च)