Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद]
[२८६ अत्यन्त भक्ति से सरकार किया। विनय नम्र निदेवन किया, हे दयानिधान गुणसिन्धो, कृपया बतलाइये कि “मेरो कन्या रत्न का सुयोग्य वर कौन होगा ?' करुणासागर मुनिराज ने प्रश्न के उत्तर में बतलाया कि हे भूपते ! मुनिये, जो सत्पुरुष, वीराग्रणी अपने पुण्य प्राताप से और भुजवल से समुद्र को तैर कर यहाँ प्रायेगा वही इस आपकी कन्या का पति होगा 1 सम्यक्त्वी उस राजा ने गरूवाणी को अकाट्य, अटल रूप से स्वीकार किया । बिना किसी ऊहा-पोह के उसी समय अपने योग्य, चतुर सेवकों को बुलाया और सागर के तौर पर नियुक्त कर दिया । उसने उनसे कहा "पाप पूर्पसावधानी से अहनिश देखते रहें कौन व्यक्ति उदधि को भुजाओं से पार कर आता है । इस में तनिक भी प्रमाद नहीं करना । ऐसा न हो कि आ कर अन्यत्र चला जाय अथवा कोई नाव-जहाज से आकर पूर्तता से तैरकर आया हूँ ऐसा कह दे । अतः पूर्ण सतर्कता से अन्वेषण करना । इस प्रकार आदेशानुसार सेवकजन रात्रि-दिवस
धानी से प्रतीक्षा करने लगे । एक दिन आया। उनका पुरुषार्थ सफल हा । खोजते हए उन लोगों ने एक विशाल, सघन छायादार पादप देखा तथा वहीं थकान दूर करने के लिए उस वृक्ष के नीचे स्वस्थचित्त विराजे धीपाल को भी देखा। उनके हर्ष का ठिकाना न रहा । आनन्द से रोमाञ्चित हो गये । उन्होंने विचारा “निश्चय ही अपने पुण्य से यह सत्पुरुष बही आपहुँचा है" इस प्रकार पुर्ण निश्चय कर प्रसन्नचित्त वे राजा के पास पहुंचे और भक्ति से नम्रता पूर्वक यह शुभ समाचार अपने स्वामी राजा को सुना दिया ।।५२ से ५६।।
श्रुत्वा तद्धनपालोऽपि स्वयमागत्य भूपतिः । तं विलोक्य निधानं वा सन्तुष्टो लक्षणयुतम् ॥५७॥ वस्त्राभरग सन्दोहैस्सुधीस्संमान्यसावरम् । मन्दिरं निजमानीय सर्वलोचन सुन्दरम् ॥५॥ शुभेल ग्ने दिने रम्ये सज्जनः परिवारितः । विवाह विधिना तस्मै ददौ कन्यां गुणोज्वलाम् ॥५६॥ तां सती गुणमालाख्या सर्वाभरण भूषिताम् । कोमलां कल्पवल्लीव मनोनयन बल्लभाम् ॥६०॥ महोत्सवशतैः कृत्या परमानन्द निर्भरः ।
नानारत्न सुवर्णा/वाहनाघस्समन्विताम् ।।६१॥ अन्वयार्थ-- (तत्) उस शुभ समाचार को (श्रुत्वा) सुनकर (धनपाल:) धनपाल (भूपति) नृपति (अपि) भी (स्वयम्) स्वयं (आगत्य) आकर(लक्षणयुतम् )अनेक उत्तम लक्षणों सहित (तम्) उम श्रीपाल को (विलोक्य) देखकर (सन्तुष्टः) सन्तुष्ट हुआ (वा) मानों (निधानम्) वह खजाना ही मिला, (सुधीः) उस बुद्धिमान राजा ने (वस्त्राभरणसंदोहै:) अनेक प्रकार के वस्त्राभूषणों से (सम्मान्य) सत्कार कर(तम) उस (सर्वलोचनसुन्दरम्) सर्व