Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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भावार्थ - हे वणिक्पति ! सबका सार एक
है तुम इस निद्य विचार को छोडो। यह काम भयङ्कर पाप है । महाविषधर है । अत्यन्त मदोन्मत्त है, दुर्गंति का द्वार है, प्रापत्तियों का निमन्त्रण है । इसे वश करो। इसके जीतने का सरल उपाय है सन्तोष । सन्तोषमन्त्र के द्वारा इसे प्राधीन कर सकते हो। जिस प्रकार गारुडी, सपेरा मन्त्रविद्या से सद्यप्राणहर भुजङ्ग को भी अपने अधीन कर लेता है और सुखी होता है, उसी प्रकार तुम काम सर्प को सन्तोष मन्त्र से वशी करो ||२२||
श्रीपाल चरि पञ्चम परिच्छेद ]
इत्येवं बोधितश्चापि स श्रेष्ठी पापकर्मरणात् ।
न मे ने वचनं तस्य भाविदुर्गतिदुःखभाक् ॥२३॥
प्रन्वयार्थ - - (इति) इस प्रकार ( भाविदुर्गतिदुःखभाक् ) भविष्य में दुर्गति के दुःखों के पात्र ( स ) उस (श्रेष्ठ) सेठ ने ( पापकर्मणात् ) पापकर्म के उदय से ( एवं ) इस प्रकार ( बोधितः) समझाये जाने पर (अपि) भी ( तरय ) उस मित्र के ( वचनम् ) वचनों को ( न मे ने) नहीं माना ।
भावार्थ – अनेक प्रकार से उस सेठ को समझाया किन्तु कमलपत्र पर जलबिन्दु समान उसके पापरूप चित्त में कुछ भी असर नहीं हुआ । चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता उसी प्रकार उसके मन पर मित्र का उपदेश टिक नहीं सका 1 ठीक ही है दुष्कर्म के प्रभाव से जीव की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। विवेक नष्ट हो जाता है ||२३||
ततोऽन्य वणिजं प्राह पापीकामग्रहाहनः
लक्ष द्रव्यं प्रदाष्यामि श्रीपालं पातयाम्बुधौ ॥ २४ ॥
श्रन्वयार्थ - ( ततः ) उस सज्जन की शिक्षा न सुनकर पुन: वह (कामगृहातः ) काम रूपी ग्रह से ग्रस्त (पापी) पापी सेठ ( अन्य वणिजम् ) दूसरे वणिक को (प्राह) बोला, (लक्षद्रव्यम ) एक लाख द्रव्य ( प्रदास्यामि ) दूँगा ( श्रीपाल म् ) श्रीपाल को ( अम्बुधौ ) ( पातय ) डाल दो |
सागर
सें
भावार्थ - - इस धर्मात्मा वणिक् के समझाने पर भी उस दुराचारी ने अपना ह्ठ नहीं छोड़ा | बल्कि, एक दूसरे अपने समान ही दुरात्मा वणिक् को बुलाया। उससे कहा, मैं तुम्हें एक लाख स्वर्णमुद्रा दूँगा, तुम होशियारी से येन केन प्रकार इस श्रीपाल को समुद्र में डाल दो | इसके मरने पर मेरा कार्य सुलभ सिद्ध हो जायेगा । वह पापी लोभी था । "लोभ पाप का बाप बखाना" लोभी मनुष्य धन के लिए क्या- क्या पाप नहीं करता । सब कुछ कर सकता है । अतः उस लालची बरिंग ने सेठ का आदेश स्वीकार कर लिया ||२४|| तथा उसने -
सोऽपि पापी दुराचारी धनलोभेन मायया ।
उच्छितोऽयं महामत्स्यस्सर्वनाशं करिष्यति ॥ २५॥