Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद
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दुर्गतिश्च क्षयं याति मन्त्रराज प्रभावतः । पुन नं याति रुण्टे व सतां जन्मनि जन्मनि ॥४०॥ सद्गतिस्वयमायाति सत्पश्चत्रिंशवक्षरैः । धाकृष्टे व सदा लोकत्रयलक्ष्मी समन्विता ॥४१॥ इन्द्रनागेन्द्र चनयादि पदं शर्मशतप्रदम् । प्राप्यते भो महाभ व्यास्सन्मात्रात्परमेष्ठिनाम् ॥४२॥ मन्त्रोऽयं कल्पवृक्षश्च चिन्तामरिपरनुत्तरा । कामधेनुश्च भव्यानां वाञ्छितार्थ स्वरूपिणी ॥४३॥ माता पिता तथा बन्धुमित्रं मन्त्रोऽयमुत्तमः । ततो भव्येस्समाराध्यस्सुखी दुःखी च सर्वदा ॥४४॥ अहो श्रीतीर्थनाथस्य जायन्तेऽत्र विभूतयः । सतां सन्मन्त्रमाहात्म्यात का कथा परसच्छियः ॥४५॥ कि बहुक्त न भो भव्या मन्त्रगतेन निश्चितम् ।
क्रमेणभव्यः सम्प्राप्य स्वर्ग मोक्षश्च शर्मवः ।।४६।।
अन्वयार्थ-(मन्त्र राजप्रसादत:) महामन्त्रराज णमोकार के प्रसाद से (भास्करण) सूर्य के द्वारा (सत्तमः ) घोर अन्धकार (इव) समान (पापराशि:) पापरूपी अन्धकार का समूह (क्षयम् ) नष्ट याति) हो जाता है. तथा (सर्वकार्यारिण) सम्पूर्ण कार्य (सिद्धयन्ति) सिद्ध हो जाते हैं ।।३५।। (प्राणहारिणः) प्राण घातक (राः) क्रू रहिंसक (सिंहढ्याघ्रादयः) सिंह, व्याघ्र प्रादि (पशव:) पशु (अपि) भी (स्वभावतः) स्वभाव से (त्यक्तवैराः) पत्रुभाव त्याग कर (सर्वे) सभो (प्रशाम्यन्ति। शान्तचित्त हो जाते हैं ॥३६।। (यतः) चूकि (दुःखदारिद्यदर्भािग्यराज्यसयूटरोगजम ) प्राधि-व्याधि, दारिद्र, दुर्भाग, राज्यविप्लव, आपत्ति, और रोगों से उत्पन्न (भयम ) भय (अपि) भी (वशम् ) वश (याति) हो जाता है (च) और (शान्ति ) सन्तोष-आनन्द (सम्पद्यते) प्राप्त होता है ।।३७।। (यत्प्रभावेन) जिस मन्त्रराज के प्रभाव से (कुक्कुरः) कुत्ता (अपि) भी (सुर:) देवता (जातः) हो गया (च) और (भूतले) पृश्वीपर (अद्भुतम् ) पाश्चर्य (इदम ) यह (प्रसिद्धम् ) प्रख्यात है कि (चौरः) चोर (अपि) भो (दिवम ) स्वर्ग को (याति) जाता है ॥३८॥ (एतेन) इस (मन्त्रेण) मन्त्र प्रभाव से
:) दुष्ट (राक्षसाः) राक्षस (च) और (व्यन्तराः) भूत प्रेतादि (सर्वथा) पूर्णत: (मुक्तवराः) शत्रुभाव त्याग (नित्यम ) सदा (ते) वे (सादराः) आदर भक्ति से (सेवाम ) सेवा (कुर्वन्ति) करते हैं ।।३६।। (मन्त्रराजप्रभावतः) पञ्चणमोकार मन्त्र के प्रभाव से (दुर्गतिः) नरकादिगति (क्षयम ) नष्ट (याति) होती है (च) और (सताम ) सज्जनों के पास (रूप्टा) रूठी हुयी (इव) के समान (जन्मनि-जन्मनि) जन्मजन्मान्तर में (पुनः) फिर