Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ]
अस्यास्संयोग वानेन दीयन्तां जीवितं मम । अन्यथा मित्र विद्धि मां यदि
श्रन्वयार्थ - वह दुरात्मा सेट कहता है - (मित्र) हे मित्र ! (अस्याः ) इस कामिनी के ( संयोग ) सम्बन्ध ( दानेन ) कराने से ( मम ) मुझे ( जीवितम् ) जीवन ( दीयन्ताम् ) दीजिये (अन्यथा ) यदि ऐसा नहीं किया तो ( त्वम) तुम (माम ) मुझको ( यममन्दिरम ) मृत्यु गृह में (एम) गया ( विद्धि) जानो ।
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भावार्थ - धवल सेठ मन्त्री से प्रार्थना करता है, हे सुहृद सुनों, यदि तुम मेरा जीवन चाहते हो तो इस सुन्दरी का शीघ्र संयोग कराने का प्रयत्न करो। इसे भोगने से ही मेरी जीवन यात्रा रह सकेगी अन्यथा निश्चय ही मृत्यु मुख में गया ही मुझे समझो इसके बिना मेरा भरण सुनिश्चित है || ११ ॥
तं निशम्य सुधी कोऽपि संजगाद वरिग्वरम् । अहो श्रेष्ठिन् महापापं परस्त्री चिन्तनं च यत् ॥१२॥ दुर्गतिर्मानभङ्गश्च धननाशो यशोहतिः । परस्त्री सङ्गमेनाशु सम्भवेन्नरकनितिः ॥१३॥
अन्वयार्थ ( तम् ) उस सेठ की बात को (निशभ्य ) सुनकर
( कोऽपि ) कोई भी एक ( वरवरम् ) वणिकोत्तम ( सुश्री) बुद्धिमान ( संजगाद ) बोला (अहो ) है ( श्रेष्ठिन् ) सेठ (परस्त्री) पराई स्त्री का ( चिन्तनम् ) विचार करना ( महापापम् ) महान् भयंकर पाप है (च) और (यत्) क्योंकि इस ( परस्त्री सङ्गमेन ) परनारी के सेवन से ( प्राशु ) शीघ्र ही ( दुर्गतिः) नरकादि गमन ( मानभङ्गः ) मानहानि (च) और (धन) सम्पत्ति (नाश:) नाथ ( यशोहति) कीर्ति विनाश ( नरकक्षितिः ) नरकभूमि ( सम्भवेत् ) संभव होगी ।
भावार्थ - इस पाप और घृणित बात को सुनकर उनमें से कोई एक उत्तम, बुद्धिबन्त श्रेष्ठ वणिक् बोला, हे सेठ, यह तुम्हारा विचार अत्यन्त हेय है पापरूप है । परनारी का विचार मात्र दुर्गति का कारण है । परस्त्री संगम की लालसा निश्चय ही स्वाभिमान, उज्वलकीर्ति और धन को नाश करने वाली है। तुम अवश्य ही प्रभोगति नरकद्वार खोलने के चेष्टा कर रहे हो। तुम्हारी मान हानि तो होगी ही परलोक में नरकों को असह्य वेदना भी सहनी पड़ेगी। यह पाप क्यों विचारा है ? इसे छोडो। यह तुम्हारे योग्य नहीं । स्वयं को सङ्कट डालते हो | यह उचित नहीं ।। १२, १३ ॥
में
परस्त्रीरजपरागेण बहवो नष्टबुद्धयः । बिनाशम्प्रापुरत्रोच्चैः पावके वा पतङ्गकाः ॥ ११४॥