Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद भावार्थ-सुखपूर्वक समस्त व्यापारी जन जहाजों में सवार हो गये । यानपात्र सागर की लहरों से खिलवार करते हुए जाते थे कि सहसा एक समय उस धवल की दृष्टि, मदनमञ्जूषा पर जा पड़ी । अवलोकन मात्र से उसकी आँखें उसी के रूप सौन्दर्य में उलझकर रह गई । वह आश्चर्य चकित हो गया । यह देवाङ्गनाओं, अप्सरानों के भी लावण्य को तिरस्कार करने वाली है । इसके समक्ष संसार का सम्पूर्ण सौन्दर्य फीका है । जिसके घर में इस प्रकार की रूपराशिनारी हो उसी का जीवन धन्य है। इस प्रकार वह दुष्टबुद्धि कामवाण से विद्ध हो, विह्वल हो उठा । पापीजन को विवेक कहाँ ? वह महापापी इस प्रकार अनेकों ऊहा-पोह मन ही मन करने लगा । तथा और भी ।।३-४॥ वह सोचता है -
यावन्न प्राप्यते भोक्त कान्तारलमिदंमया।
तावत्सर्व वृथा मेऽत्र सम्पदा जीवजीवितम् ॥५॥ अन्धयार्थ--पापी धबन विचारता है- (यावत) जब तक (इद) इस (कान्तारत्नम्) स्त्री रत्न को (मया) मेरे द्वारा (भोक्तम् ) भोगने के लिए (न) नहीं (प्राप्यने) प्राप्त किया जाता है (तावत् तब तक (भत्र) यहां, इस संसार में (में) मरा (जीव) जोवन (सम्पदा) सम्पत्ति (जीवितम्) जीवन के साधन (सर्वम्) सब कुछ (वृथा) व्यर्थ हैं।
भावार्थ--वह दुराचारी विचार करता है कि इस प्रकार की अपूर्व सुन्दरी नारी
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