Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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॥श्रीमत्पञ्चगुरुभ्यो नमः ॥ ॥अथ पञ्चम परिच्छेदः प्रारभ्यते॥
अथ श्रेष्ठी विधायोच्च ापार तत्र लीलया । रत्नद्वीपेषु रत्नाद्यैर्यस्तुसार समुच्चकैः ॥१॥ यानपात्राणि सम्भृत्त्वा विधानानीव वेगतः ।
स्वदेशं गन्तुकामस्सन् प्रचचाल परिच्छदैः ॥२॥
अन्वयार्थ -(अय) तदनन्तर (श्रेष्ठो) धवलसेठ (रत्नदीपेष) रत्नद्वीपों में (उच्चैः) विशेष रूप से (व्यापारम्) व्यापार (विधाय) करके (तत्र) वहाँ (रत्नाद्य:) हीरा, माणिक, पन्नादि सारभूत रत्नों से तथा (सारवस्तूसमूच्चकैः) अनेकों उत्तमोत्तम वस्तुओं से (लीलया) आनन्द से (यानपात्राणि) जहाजों को (सम्भरवा) भरकर (निधानानि) निधियों के (इव) समान (परिन्छदै :) परिकरों से युक्त हो (स्वदेशम् ) अपने देश को (गन्तुकामः) जाने की इच्छा (मन) करता हुआ विगतः) शीघ्रता से (प्रचचाल:) चल दिया र बाना हुआ।
भावार्थ धवल सेठ ने वहाँ रन द्वीप में श्रीपाल के सहयोग से ग्ध व्यापार किया तथा लाभ उठाया । अनेकों प्रकार के असंख्य रत्नादि से अपने यानपात्र भर लिए। वहां की अनेकों उत्तम बस्तुओं का संग्रह किया। आनन्द सं अटूट सम्पत्ति को जहाजों पर लाद लिया। अपने सभी साथियों से घर वापिस चलने की इच्छा व्यक्त की । अतः सम्पूर्ण परिकर को लादकर-साथ लेकर शीघ्र ही वहां से रवाना हो गया !!१-२॥
पोतस्थस्सागरे गच्छन् दृष्ट्वा श्रीपालकामिनीम् । रूप सौभाग्यसम्पन्नां तिरस्कृत सुराङ्गनाम् ॥३॥ पापी कामातुरश्चित्ते चिन्तयामास दुष्ट धीः ।
अहो यस्य गृहे संषानारी धन्यस्स एव हि ॥४॥ अन्वयार्थ-- (पोतस्यः) यानपात्र में बेटा (सागरे) समुद्र में (गच्छन्) जाते हुए (रूपसौभाग्यसम्पन्नाम् ) रूप लावण्य युक्त (तिरस्कृतसुराङ्गनाम् ) देवङ्गनानों को भी अभिभूत करने वाली (श्रीपाल कामिनाम् ) श्रीपाल की पत्नी को (दृष्ट्वा ) देखकर (पापी) वह पापचारी धवलसे3 ( कामातुरः) काम से व्याकुल (दुष्टधीः) दुर्जन ( चित्ते) मन में (चिन्तयामास) विचार करने लगा (अहो) प्राश्चर्य है ! (यस्य) जिसके (गृहे) घर में (ऐसा) इस प्रकार की (मारी) स्त्री है (हि) निश्चय से (सः) वह (एव) ही (धन्यः) घन्य है।