Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद अन्वयार्थ-(ततः) यह सुनकर (यदा) जैसे ही (सः) उस (श्रीपालः) भक्तशिरोमणि श्रीपाल ने (हस्तेन) हाथ से (स्पर्शनम् ) स्पर्श (करोतिस्म) किया (तदा) तब (तत्पुण्यपाकेन) उसके प्रचुर पुण्योदय से (तत्) व (कपाट द्वयम्) दोनों किवाड (स्वयम्) अपने आप ही (परमानन्द) परम प्रानन्द को (दयाकम् ) देने वाले (शीघ्रम्) तत्क्षण (उद्घाटितुम्) खुले हुए (जातम्) हो गये। (यथा) जिस प्रकार (महात्मना) महान विशेषज्ञ द्वारा प्रयुक्त (औषधेन) औषधि से (नेत्रद्वयम् ) दोनों विकारी नेत्र (रम्यम् ) सुन्दर, रोग रहित (जातम्) हो जाते हैं।
भावार्थ-द्वारपाल की बात सुनकर कोटिभट श्रीपालजी ने ज्यों ही किवाड़ों को हाथ से छ आ त्यों ही वे दोनों किवाड स्वयम् ही खुल गये । जिस प्रकार किसी सुबुद्ध
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वैद्य द्वारा नेत्रों में उचित औषधि लगाने से दोनों नेत्र निर्मल हो जाते हैं। रोग रहित हा जाते हैं : परम आनन्द को देने वाले कपाटों के खुलते ही चारों और प्रानन्द की लहर दौड़ गई ।।११२।।