Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ]
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को अभिलषित पदार्थों को देने वाले हैं। आप महान् तेजपुञ्ज स्वरूप है अक्षय प्रकाश से समस्त भूमण्डल को प्रकाशित करने वाले हैं है परम देव आपकी जय हो जय हो ।। १२५ ।।
जय संसारवारासौ दत्तहस्तावलम्बनम् ।
त्वमेव भव्यजीवानां दुःखदावघनाघन ॥ १२६ ॥
अन्वयार्थ – (संसारवारासी) संसारसागर में ( दत्तहस्तावलम्बनम् ) हाथ का सहारा देने वाले ( जय) आपकी जय हो ( भव्यजीवानाम् ) भव्यजीवों के ( दुःखदाय ) दुःखरूपी दावानल को बुझाने वाले (तथम्) भाप (एव) ही (घनाघन ) मेघमाला हैं (जय ) आप जयवन्त हों ।
भावार्थ हे भगवान यह संसार समुद्र है इससे पार करने वाले आप ही हैं। आप तावलम्बन देने वाले हैं । दुःखरूपी दवाग्नि में संसारी जीव धायधांय जल रहे हैं, भस्म हो रहे हैं. इस ज्वाला को शान्त करने के लिए आप सघन गर्जना कर बरपने वाले मेघ हैं। आपकी जय हो ।। १२६ ।।
त्वमेव परमानन्दस्त्वमेव गुणसागरः ।
त्वमेव करुणासिन्धुर्बन्धुस्त्वं भव्यदेहिनाम् ॥१२७॥
श्रन्वयार्थ -- हे प्रभो (त्वम् ) आप (एव) ही ( परमानन्दः) परमोत्कृष्ट श्रानन्द ( स्वम्) तुम एच) ही ( गुणसागरः ) गुणों के आकर ( त्वम् एव ) श्राप ही ( करुणा सिन्धु ) दयासागर ( त्वम एवं ) आप ही ( भव्यदेहिनाम ) भव्यजनों के (बन्धु) सच्चे बन्धु हैं ।
भावार्थ - हे भगवन ! आप परम श्रानन्द के धाम हैं । आप ही गुणों के सागर हैं। आप ही दयानिधि हैं भव्य जीवों के सच्चे बन्धु दुःखनिवारक सुखकारक आप ही हैं। अतुलगुणों के धाम आप ही । अर्थात् आपका दर्शन परम सुख का निशन है। सर्व दुष्कर्मों के नाशक आप ही हैं ||१२७।१
त्वं देव महतां पूज्यो महान पुण्य निबन्धनः । दुर्लभस्त्वमपुण्यानां प्राप्तोमयाति पुण्यतः ॥ १२८ ॥
अन्वयार्थ - - (देव) हे देव (त्वम् ) आप ( महताम् ) महानजनों से ( पूज्य : ) पूजने योग्य हैं - पूजनीय हैं ( महान् ) सातिशय (पुण्यनिबन्धनः ) पुण्यबन्ध के कारण, (अपुण्यानाम ) पापियों के लिए (दुर्लभः ) दुष्प्राप्य, (मया) मेरे द्वारा (अति) अत्यन्त ( पुण्यतः ) पुण्य योग से ( प्राप्तः ) प्राप्त हुए हैं ।
भावार्थ - श्रीपाल करबद्ध स्तुति कर रहा है कि "हे भगवान् आप महापुरुष नरपुङ्गव चकी, ऋषि, मुनि यतियों, इन्द्र धरणेन्द्रादि से पूज्यनीय हैं। पुण्यशाली प्राणियों को ही