Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद अन्वयार्थ---(नाथ ! ) भो नाय (ते) आपके (अंघ्रिनमस्कारात्) चरणों में नमस्कार करने से (भाक्तिकः) भक्तों द्वारा (इह) यहाँ (सुराचितम् ) देवों से पूजित (उच्च:) उत्तम (गोत्रम ) गोत्र तथा (भक्त :) भक्ति करने से (दिव्यम ) शोभनीय (कान्तम् ) कान्तियुक्त (वपुः) शरीर (लभ्यते) प्राप्त किया जाता है।
भावार्थ -हे जिनेश्वर भगवन ! जो भक्त, श्रद्धा, भक्ति और विनय से प्रापके पवित्र चरण कमलों में नमस्कार करता है उसे लोकमान्य, देव पूजित उत्तम कुल मोत्र की प्राप्ति होती है । तथा जो भक्त सुदृढ, निष्कपट भक्ति करता है उसे अत्यन्त सुन्दर प्राकृति वाला कान्तिमान, दिव्यरूपलावण्य युक्त शरीर की प्राप्ति होती है । अभिप्राय यह है कि जिन भगवान की भक्ति उभयलोक सम्बन्धों सत्सम्पदा प्रदान करता है ।।१३४॥
अनन्तांस्त्वद्गुणानीश तेऽत्रासाधारणान् परान् ।
मुक्त्वा गणाधिपं कोऽन्यः स्तोतुमर्हति सद्बुधः ॥१३५।।
अन्धयायं--(ईश:) हे परमेश्वर ! (त्वद्) आपके (अनन्तान्) अन्तातीत (असाधारणान्) असाधारण (परान्) अन्य-अन्य (गुणान्) गुणों की (स्तोतुम ) स्तुति करने में (गणाधिपम ) गणधर भगवान को (मुक्त्वा ) छोड़कर (अन्यः) दुसरा (क:) कौन (सबुधः) बुद्धिमान (अर्हति) समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई भी नहीं।
भावार्थ हे जगदीश ! आपके गुण अन्तातीत हैं । गणधर देव हो उनकी स्तुति करने में समर्थ हो सकते हैं। अन्य बुद्धिमान उन्हें स्तुति का विषय बनाने में समर्थ नहीं हो सकता । क्योंकि वे गुण असाधारण हैं अर्थात् आपके सिवाय अन्य किसी में भी नहीं पाये जा सकते हैं । फिर भला मैं तुच्छ बुद्धि किस प्रकार स्तुति करने में समर्थ हो सकता हूँ ? अर्थात् नहीं हो सकता ।।१३५।।
मत्त्वेति देव तीर्थेशत्वद्गुणग्राम भाषणे।
मया स्वल्पधियाप्यद्य कृतोद्यमः तव भक्तितः ।।१३६।।
अन्वयार्थ – (इति) इस प्रकार (मत्त्वा) मानकर (देव) भो भगवन् (तीर्थेश ! ) हे तीर्थप्रवर्तक ! (अद्य) प्राज (स्वल्पधिय!) अल्पबुद्धि (अपि) भी (मया) मेरे द्वारा (त्वद् गुणभाषणे) आपके गुण वर्णन में (तव) आपकी (भक्तितः) भक्ति में (कृतोद्यमः) उद्यम किया गया।
मावा ...हे तीर्थ प्रवर्तक, हे देव आपके गुण अनन्त हैं । मेरी बुद्धि अल्प है । मैं जानता है कि आपके गुणों का एक अंश भी मैं वर्णन नहीं कर सकता । तो भी आज जो मैंने आपकी स्तुति करने का साहस किया है वह आपकी भक्ति का ही प्रभाव है। आपकी प्रबल