Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद
मेरो शृङ्गमियोङ्ग गणयन्तं नमोऽङ्गणम् । महिम्ना परमानन्दं कुर्वतं भव्य बेहिनाम् ॥१०५॥ महा घण्टा निनावैर्वा तर्जयन्तं घनाघनम् । कृष्णागरूल सत्धूपैस्सुगन्धीकृत भूतलम् ॥ १०६ ॥ दर्शनेन जगत्पाप ताप संदोह नाशनम् । अनेक रचनोपेत भव्य चेतोऽनुरञ्जनम् ॥१०७॥ तस्य द्वारञ्च संवीक्ष्य दत्त वज्र कपाटकम् ।
तत्रयं च समान स विश्मयः ॥ १०८ ॥ सप्त
अन्वयार्थ - (तु) किन्तु ( श्रीपाल : ) श्रीपाल तो ( तदा) उस समय ( तम्मिन्) उम ( द्वीपे ) रत्नद्वीप में (त्रैलोक्य तिलका) त्रैलोक तिलक ( श्राह्वयम् ) नामक ( सहस्रकूट ) एक हजार शिखरों से (संयुक्त) सहित ( जिनालयम् ) जिनमन्दिर को (वा) देखकर चकित हुआ कैसा था वह जिनालय - ( सुरासुर ) सुर और असुरों से ( नमस्कृलभ ) नमस्कार की जाने बाली (सोवयम् ) सुवर्ण निर्मित ( पञ्चधा ) पाँच प्रकार के ( रत्न कान्त्या ) रत्नों की कान्ति से ( रञ्जित) चमत्कृत करदो हैं ( दिङ्गमुखम् ) दिशाएँ जिन्होंने ऐसी (जिनेन्द्रप्रतिमोपेतम् ) श्रीजिन भगवान की प्रतिमाओं से सहित ( सहस्र ) हजार (शिखर आबद्ध ) शिखरों पर बन्धी हुई ( मस्त्) वायु से (उद्धतेः) फहराती ( ध्वजातेः ) ध्वजासमूहों से (वा) मानों (भव्यानाम् ) भव्य जीवों के लिए (स्वर्ग) स्वर्गं (अपवर्गयोः) मोक्ष का ( मार्गम् ) राहू - रास्ता ( दर्शयन्तम् ) दिखा रहा हो - ( मेरो :) मेरू पर्वत की (म्) चोटी ( इव) समान ( उत्तुङ्गम) उन्नत ( नमोऽङ्गनम् ) गगनसीमा को (गरणयन्तम् ) मापता हुआ ( भव्य देहिनाम् ) भव्य प्राणियों को (महिम्ना) अपनी महिमा से (परमानन्दम् ) महा श्रानन्द ( कुर्वन्तम) करता हुआ, (महाघण्टा ) बड़े-बड़े घण्टों के ( निनादः ) भंकार द्वारा (वा) मानों ( घनाघनम् ) सघनमेघों को (तर्जयन्तम् ) धमका रहा हो ( कृष्णागरु ) कृष्ण अगुरु चन्दन की ( लसत) सुन्दर सुगंधित (धूपैः) धूप धुंआ से ( भूतलम् ) पृथ्वीमण्डल ( सुगन्धीकृतम् ) सुवासित कर दिया, ( दर्शनेन ) दर्शनमात्र से ( जगत् ) संसारी जीवों के ( पापतापसंदोहम् ) पाप से उत्पन्न ताप के समूह को (नाशनम् ) नाश करने वाले ( अनेक ) नाना प्रकार ( रचनोपेतम् ) रचना से रचित ( भव्यचेतः) भव्यजीवों का चित्त (अनुरजनम् ) प्रसन्न करने वाले (च ) और (दत्तकपाटकम् ) जड़े हैं वञ्चकिया जिसमें ऐसे ( तस्य ) उसके ( द्वार) दरबाजे को ( संवीक्ष्य) देखकर (च) और ( सविस्मयम्) आश्चर्य चकित हो ( तत्र ) वहाँ ( स्थ) बैठे (द्वारपालम् ) द्वारपाल को ( सम् ) सम्यक् ( अपृच्छत् ) पूच्छा |
भावार्थ - जिसका मन जहाँ अनुरक्त होता है वह वहीं रमता है। सेठ आदि व्यापारी भोजन-पान से निवृत्त हो रत्नद्वीप में व्यापार के लिए चले गये। इधर श्रीपालजी ने उद्यान में विशाल भवन देख उधर प्रयाण किया। वहाँ "त्रिलोक तिलक" नामके, स्वर्गसम्पदा को तिरस्कृत करने वाले परम रम्य एक हजार शिखरों से सुशोभित सहस्रकूट चैत्यालय देखा । वह जिनालय सुर असुरों से पूज्य था । देवगणों से नमस्करणीय था । स्वर्ण निर्मित, विविध