Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
श्रोपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद]
[२४५ ततः पोतानि पुण्येन निर्विध्नेन सुखेन च
रत्नद्वीपं क्रमावापुः पद्मरागमणिश्रितम् ॥६६॥
अन्वयार्थ--(ततः) इसके बाद (पुण्येन) पुण्ययोगेन से (निर्विघ्नेन) विनरहित (च) और (सुखेन) सुख से (पोतानि) जहाज (पद्मरागमगि श्रितम) पद्मरागमणि बाले (रत्नद्वोपम ) रत्नदीप को (प्रापु:) प्राप्त किया ।।
भावार्थ - तस्करों को भी मित्र बनाकर, उनके द्वारा प्रदत्त भेंट को सभी पोतस्थ जनों को वितरित कर जहाज चल पड़े । क्रमशः वे यान पभरागमगियों से भरे रत्नद्वीप में जा पहुँचे ॥१६॥
महाभवन संयुक्त साररत्नादिभिः भृतम् ।
तद् द्वीपं ते समालोक्य सन्निधि वा ययुमुदाः ॥१०॥ अन्वयार्थ--(महाभवन) विशाल गृह प्रासाद (संयुक्तम) सहित (सार) उत्तमउत्तम (रत्नादिभिः) रत्नों से (भतम ) भरे हुए (तद्) उस (द्वीपम ) द्वीप को (समालोक्य) देखकर (ते) वे लोग (मुद्रा) प्रसन्नता से (वा) उस द्वीप के (सन्निधिम )निकट में (ययुः) पाये ।
भावार्थ-वह रत्नद्वीप महान् विशाल-विशाल उन्नत घर, प्रासाद, मन्दिर आदि से युक्त था । अनेकों अमर्य-बहुमूल्य विविध प्रकार के रत्नों से भरा था । इन समस्त अनुपम वस्तुओं का अवलोकन कर उन्हें परम सन्तोष हुप्रा । आनन्द से उस द्वीप के अन्दर प्रविष्ट हुए ॥१००।।
पोते न्यस्तै समुत्तीर्य भोजनादीन् विधाय च ।
स्वस्य व्यापारमाकर्तु संलग्नाः श्रेष्ठिमुख्यकाः ।।१०१॥
अन्वयार्थ--(समुत्तीर्य) सागर तट पर उतर कर (पोते) जहाज में (न्यस्ते स्थापित (भोजनादीन्) भोजन आदि लेकर-करके (च) और (विधाय) भोजन पान कर (श्रेष्ठिमुख्यका:) धवल सेठ आदि व्यापारी (स्त्रस्य) अपने (ध्यापारम् ) व्यापार को (क ) करने में (संलग्ना:) लग गये।
भावार्य अपने जहाज में रक्खे भोज्यपदाथों को लेकर सबने प्रथम भोजन किया। पुनः सभी अपने-अपने व्यापार में लीन हो गये । क्योंकि उनका उद्देश्य ही व्यापार था। 1॥१०१।। किन्तु
श्रीपालस्तु तदा तस्मिन् द्वीपे दृष्ट्वा जिनालयम् । सहस्रकूट संयुक्त त्रैलोक्यतिलका ह्वयम् ।।१०२॥ सौवयं तञ्चधारत्न कान्त्यारजित दिड्.मुखम् । जिनेन्द्र प्रतिमोपेतं सुरासुर नमस्कृतम् ।।१०३।। सहस्रशिखराबद्ध ध्वजनातर्मरुदुद्धतः । भव्यानां दर्शयंस्तं वा मार्ग स्वर्गापवर्गयोः ।।१०४॥