Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ]
[२४६
निधानं वा समासाद्य तदा सन्तुष्ट मानसः ।
जय कोलाहलं कुर्वन् प्रविष्टो जिनमन्दिरम् ।।११३।।
अन्वयार्थ-- (वा) मानों (निधानम्) निधि ही (समासाद्य) प्राप्त हुयो हो ऐसा (तदा) उस समय (सन्तुष्ट) प्रसन्न (मानसः) चित्त (जय) जय जय ध्वनि (कोलाहलम्) जोर जोर से (कुर्वन्) करता हुआ श्रीपाल (जिनमन्दिरम् ) जिनेन्द्र भगवान के मन्दिर में (प्रविष्टः) प्रविष्ट हुआ।
भावार्थ--वत्र किंवाड खुलते ही श्रीपाल के हर्ष की सीमा नहीं रही। उसे लगा मानों कोई अपूर्व निधि ही मिली हो । ॐ जय-जय, निः सही निः सही करते हुए महावनि के साथ श्री जिनालय में प्रवेश किया ।।११३।।
तत्र श्रीमज्जिनेद्राणां प्रतिमाः पापनाशनाः
प्रोत्त ङ्गारत्ननिर्माणाः पश्यतिस्म जगद्धिताः ।।११४।।
अन्वयार्थ--(तत्र) वहाँ (पापनाशनाः) पापों का नाश करने वाली, (प्रोत्तुङ्गा) विशाल (रत्ननिर्माणाः) मिनिष रहनों में बनी तिसंगार का कल्याण करने वाली (श्रीमज्जिनेन्द्राणाम् ) श्री वीतराग भगवान की (प्रतिमा:) प्रतिमाएं (पश्यतिस्म) देखीं । दर्शन किये ॥११४॥
कृत्वा महाभिषेकं स तासां सम्पद्विधायकम् । पञ्चामृतैर्जगत्सारः प्रचुरैः परमादरात ।।११५॥ पुनस्ताः पूजयामास सुधीः देवेन्द्र पूजिताः ।
कापूरवासितः स्वच्छतोयधाराभिरुत्तमः ॥११६।।
अन्वयार्थ--(सः) उस श्रीपाल ने (तासाम्) उन मनोज्ञ प्रतिमाओं का (परम) अत्यन्त (आदरात्) बिनय से (जगत्सारैः) संसार के उत्तम (प्रचुरैः) बहुत से (पञ्चामृतैः) पञ्चामृतों से (सम्पत्) सुख (विधायकम् ) देने वाले (महाभिषेकम्) महामस्तकाभिषेक (कृत्वा) करके (पूनः फिर. (उत्तमैः) उत्तम (कपरवासितस्वच्छतोयधाराभिः) परादि सुगन्धित पदाथों से सुवासित नीर धारादि द्वारा (सुधी:) उस बुद्धिवन्त श्रीपाल ने (देवेन्द्रपूजिताः) इन्द्रों से पूजित उन (ता:) प्रतिमाओं की (पूजयामास) पूजा की।
भावार्थ.. श्रीपाल महराज ने परम भक्ति और श्रद्धा से उन सौम्य, मनौज लथा पाप भजक प्रतिमाओं का सुन्दर-सुन्दर उत्तम गुद्ध पदार्थों से पञ्चामृताभिषेक महा अभिषेक