Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल परित्र चतुर्थं परिच्छेद ]
[ २४३
अन्वयार्थ --- ( त्वम् ) आप ( अस्माकम ) हमारे ( प्राणदाता) प्राण देने वाले हैं ( वयम् ) हम लोग ( भक्तिम्) भक्ति (च) और ( भृत्यताम् ) सेवा- दासता ( कुर्मः) करने को तैयार हैं ( यतः ) क्योंकि ( प्रत्युपकारेण ) उपकार का बदला देकर ( अहम् ) मैं राजा ( कृतकृत्यो) कृतकृत्य ( भवामि ) हो जाऊँगा । होता हूँ ।
भावार्थ – अनेक प्रकार श्रीपाल की स्तुति एवं भक्ति कर बर्बर राजा ने उसका स्वागत करना चाहा । वह श्रीपाल से निवेदन करता है हे प्रभो ! हम आपके सेवक हैं । आपके भक्त हैं । हम पर अनुग्रह कीजिये । कृपा कर हमारे देश में पधारें। हम सब हर प्रकार से आपकी सेवा करेंगे। सत्कार कर प्रत्युपकार करना चाहते हैं। क्योंकि उपकारी का उपकार करना मानव का परमधर्म है। आप अवश्य पधारें। आपके पधारने से में उऋण होना चाहता हूँ। आप श्रनुज्ञा दीजिये || ६४ ||
तत् समाकग्यं स श्रेष्ठी श्रीपाल प्रत्यभाषितः ।
तत्र गन्तु न ते युक्तं कार्यमेत्तद् विहाय च ॥६५॥
श्रन्वयार्थ -- (तत्) वह आमन्त्रण ( समाकर्ण्य ) सम्यक् प्रकार सुनकर ( स ) वह
( श्रेष्ठी ) धवलसे ( श्रीपालं प्रति ) पाल से (अभाषितः) बोला. ( एतद् ) इस ( कार्यम् ) काम को ( विहाय ) छोड़कर (च) और (तत्र) वहाँ ( गन्तुम) गमन को तैयार होना (ते) आपके लिए ( युक्तम् ) उचित (न) नहीं है।
भावार्थ -- बर्बर राजा की कृतज्ञता और प्रत्युपकार भावना से सेट का मन काँप उठा । क्योंकि उसने उपकारी श्रीपाल को अपना जीवनदाता स्वीकार कर उसे अपने देश में ले जाना चाहा । प्रत्युपकार को भावना से उसे ग्रामन्त्रण दिया । श्रवाल जी के वहां जाने से धवलसेठ का कार्य ठप हो जाता है । अत: श्रौपाल के स्थान पर स्वयं ही बीच में उत्तर देता है--- धवल सेठ श्रीपाल के उत्तर या इच्छा को प्रतीक्षा न कर मध्य में ही "दाल-भात में मूसलचन्द" कहावत को चरितार्थ करता हुआ बोला "हे सुभग मेरे साथ व्यापार रूप इस कार्य को छोडना और तस्करों के देश में जाना आपको तनिक भो योग्य नहीं है । ठीक ही है संसार में कौन अपना स्वार्थ सिद्ध नहीं करना चाहते ? सभी चाहते हैं ||५||
ततो वर्वरराजोऽपि सारवस्तुशतंभृतान् ।
श्रीपालाय ददौ प्रीत्या सप्त पोतान् समुन्नतान् ॥ ६६ ॥
अन्वयार्थ - - ( ततः) श्रेष्ठी द्वारा गमन का निषेध करने पर ( वर्वर राजा ) बदर राजा ने (अपि) भी (समुन्नतान् ) गगनचुम्बी -ऊँचे ( सारवस्तुशतै भृतान् ) संकडों उत्तमोत्तम वस्तुओं से भरे ( सप्त ) सात ( पोतान् ) जहाजों को ( प्रीत्या ) अनुराग से (श्रीपालाय ) श्रीपाल के लिए (दो) प्रदान किये।
arat - "को बान्धो गुरु वाक्यमलंघयेत्" कौन जाग्रत बुद्धि गुरुजनों की आज्ञा