Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद
प्रन्वयार्थ - - ( तदा ) तत्र ( तदीयम् ) उस श्रीपाल के ( परम ) अद्वितीय ( पौरुषम् ) पुरूषार्थ को (उच्च) विशेषरूप से ( विलोक्य) देखकर (श्रेष्ठ) धवल सेठ ने ( मुदा ) प्रसन्नता सेस (अस्मैः ) श्रीपाल के लिए ( अनेक ध्वनतुर्यादिकबजे ) नाना वादित्रों के मधुर स्वर और जयध्वनि के साथ ( मरिणकाञ्चन) मणि मुक्ता, ( वस्त्रादीन् ) वस्त्रादिक ( सारभूत) उत्तममूल्यवान (अम्बरादिकान् ) पोषाकादि को ( वितीर्य) वितरण कर (स्वजनस्सार्द्ध) स्वजनों के साथ (भटोत्तमम् ) सुराग्रणीयं (श्रीपाल ) श्रीपाल को ( शशंसेति) प्रशंसा करता है कि ( त्वम् ) प्राप ( धीमान् ) बुद्धिमान् (पुरुषसिंहः) पुरुषों में तेजस्वी, ( महान ) महान् ( वीराप्रणी) वीरों में वीर ( महाबलः ) अत्यन्त शक्तिशाली ( महातेजः ) महातेजस्वी (धन्यः ) अन्य हो ( त्वत्) तुम्हारे ( समः ) समान ( परो) अन्य ( भटः ) सुवीर (न) नहीं है ।
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भावार्थ - - बर्नर राजा को तस्करों को श्रीपाल ने क्षणभर में युद्ध में परास्त कर दिया । सबको अपने भुजबल में बांध लिया। दशहजार सुभट जिनसे परास्त कर दिये गये उन दों को कोटिभ ने अकेले ही बन्धनवज्र किया और श्रेष्ठी का सबंधन लाकर उसे दे दिया । यह चमत्कारी प्रतिभा, बल पराक्रम देखकर सेठ का हर्ष असीमित हो गया। वह अनेकों वादि बजवाने लगा । उसने जय जय घोष और नाना प्रकार वादित्रों के मधुर स्वर के साथ अनेकों मणि, माणिक्य काञ्चनादि प्रदान किये। अनेकों अलङ्कार, वस्त्र, पटम्बर भेंट किये । वर्ण-वर्ण के नानाविध पोषाकादि प्राभृत में दिये तथा अपने सुभटों के साथ उसका यशोगान भी किया । वह स्तुति करने लगा है पुरुषोत्तम, हे सुभटमणि ! हे धीमन् ! श्राप पुरुषसिंह हैं, महान् वीरों में वीर शिरोमणि हैं, महातेजशाली हैं, आपके समान आप ही हैं । आपके लिए उपमा रूप कोई भी संसार में नहीं है। वस्तुत: आप अप्रतिम प्रतापी हैं। इस प्रकार नाना प्रकार से सेठ तथा उसके परिकर, बन्धु, वान्धव सभी ने श्रीपाल की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसके धैर्य, बल पराक्रम को बार-बार प्रकट किया ॥८५ ८६ ८७॥
श्रीपालोऽथ दयालुत्वात् धृत्वा चौरांश्च तान् पुनः । भोजनाद्यैस्सुसम्मान्य निःशल्य सञ्चकार सः ॥६॥
श्रन्वयार्थ --- ( पुनः ) तदनन्तर ( अथ ) अब ( स ) उस (श्रीपाल : ) श्रीपाल ने (दयालुस्वात्) दयाभाव से (घृत्वा) पकड़ कर लाये (तान् ) उन (चौरान् ) श्रीरों को (भोजनाय :) भोजन पान करा ( सम्मान्य) सम्मानित करके (च) और ( निःशल्य) निर्भय ( सञ्चकार: )
बनाया ।
भावार्थ -- धर्मात्मा, उदार मनीपी अपराधी के अपराध का संहार करते हैं अपराधी का नहीं । पापी के पाप से घृणा करते हैं पापी से नहीं । अपितु उन्हें अशुद्ध सुब को शुद्ध बनाने के समान निर्दोष बना देते हैं । कृपालु श्रीपाल भी इसका अपवाद नहीं था । उसके सभी दस्युओं को बन्धन मुक्त किया। भोजन शन कराकर सम्मानित किया। तथा अभयदान प्रदान कर सबको निर्भय और शल्य रहित कर दिया । ठीक ही है नाश की अपेक्षा सुधार करना ही मानवता है । यह दयाधर्म है ||८||