Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद]
[१७१ पात्रदानेन भो राजन् नानासत्सम्पदा सुखम् ।
प्राप्यते परमानन्दं भो सुते ! श्रण वत्सले ॥६२।। अन्वयार्थ-(भो राजन्) हे राजन् श्रीपाल (क्त्सले) वात्सल्यमयी (भो सुते) हे पुत्रि (शृण ) सुनो (पात्रदानेन) पात्रदान करने से (नानासम्पदाम) अनेक प्रकार की सम्पतियाँ (सुखम् ) सुप (च) और (परमानन्दम् ) क्रमश: परम आनन्द भी (प्राप्यते) प्राप्त होता है।
'भावार्थ पात्रदान मुख्य कर्तव्य है । श्रावकों को यह पात्रदान कल्पवृक्ष है। इच्छित सपकात्रों का दासा है, सुरखों कमा विधाता है और परम्पर। से मोक्षरूप परमानन्द को भी देने वाला है ।।६२।। दान का उपसंहार करते हैं--
पाहारौषधशास्त्रदानमभयं दानं सुपात्रे त्रिधा । ये भच्या निजशक्तियुक्तसहिता नित्यं शुभं कुर्वते ।। तेभव्या धनधान्यमन्यविभवं भुक्त्वाचिरं पावनम् ।
पश्चात्स्वर्गसुख समाप्य सततं मोक्षं लभन्ते परम् ।।६३॥
अन्वयार्थ—(ये) जो (भव्या) भव्यजन (निजशक्तियुक्त सहिता) अपनी शक्ति के अनुसार (नित्यम् ) प्रतिदिन (त्रिधा) तीन प्रकार के (सुपात्र) सुपात्रों को (शुभ) शुभ (आहार:) आहार (औषधिः) औषध (शास्त्रम्) शास्त्रज्ञान और (अभयं) अभय (दानम) दान (कुर्वते) करते हैं, (ते) वे (भव्या) भव्यजीव (धनधान्यम् ) धन, धान्य (अन्यम् ) और भी (विभवम ) वैभव (पाचनम पुण्यरूप फल को चिरम ) वहत काल तक (भक्त्वा ) भोगकर (स्वर्गसुखम् ) स्वर्ग के सुखों को (समाप्य) समाप्त कर (पश्चात् ) तदनन्तर (सततम् ) निरन्तर (परम) सर्वोत्तम (भोक्षम् ) मोक्ष को (लभन्ते ) प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ:-जो भव्यात्मा तीन प्रकार के सत्पात्रों को सदाकाल यथाविधि शत्ति के अनुसार योग्यदान देते हैं, वे भव्य श्रावक जन धनधान्यवन्त होते हैं राजा, भण्डलेश्वर, चक्रवर्ती आदि के वैभव को प्राप्त करते हैं, स्वर्ग सम्पदा का भोग-उपभोग कर अन्त में परमानन्द रूप मोश सुख को प्राप्त करते हैं । अमरत्व आनन्द को पाकर चिरकाल सुखानुभव करते हैं ।।।६३।।
जिनेन्द्रभवनोद्धारं प्रतिमां पापनाशिनीम् ।
ये कारयन्ति धर्मज्ञास्ते सम्यग्दृष्टयोभुवि ।।६४॥ मन्वयार्थ - (ये) जो (जिनेन्द्रभवनोद्धारम ) जिनालय का निर्माण, (पापनाशिनीम्)