Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद
प्रन्वयार्थ - - ( संसारे) विश्व में ( ये ) जो (स्वकोय) स्वयं (उपार्जित) अर्जित ( धनैः ) धन के द्वारा ( चन्द्रकान्ति ) चन्द्रकिरणों ( इत्र ) समान (उज्वलाम् ) निर्मल ( कोर्तिम) यश को ( विस्तारयति) फैलाते हैं ( तयेव ) वे ही ( धन्याः ) धन्य हैं ।
भावार्थ श्रीपाल कहते हैं, हे प्रिये, इस लोक में जो पुरुष स्वयं अपने ही पुरुषार्थ से व्यापारादि कर लक्ष्मी कमाते हैं । तथा उस अर्जित सम्पदा को यथार्थ दान पूजादि कार्यों में व्यय कर लोकमान्य यश प्राप्त करते हैं। वे ही मानव धन्य हैं। योग्य और सार्थक जीवनयुक्त हैं। अभिप्राय यह है कि पुरुष सिंह अपने बल पर ही जीवन यापन करना चाहते हैं पराधीन जीवन सत्पुरुषों को कभी नहीं रुचता ॥ १० ॥
तो देशान्तरे गत्वा धनञ्चोपायं निर्मलम् । पश्चात्संसारसौख्यानि भुज्यन्ते निश्चयात्प्रिये ॥११॥
अन्वयार्थ - श्रीपाल कहते हैं (अतः ) इसलिए ( प्रिये ) हे बल्लभे ! ( देशान्तरे ) परदेश (गत्वा) जाकर (च) और (निर्मलम) न्यायपूर्वक ( धनम) लक्ष्मी ( उपाय ) कमाकर (पश्चात् ) बाद में ( निश्चयात्) निश्चय से ( संसारसौख्यानि ) संसार योग्य भोगों को ( भुज्यन्ते) भोगना चाहिए।
भावार्थ अपनी प्रारण प्रिया से श्रीपाल महाराज कहते हैं, हे प्रिये ! अब मैं विदेश जाकर लक्ष्मी उपार्जन करूंगा । न्यायपूर्वक सञ्चित धन के होने पर ही संसार के पवेन्द्रिय अन्य सुख भोगना चाहिए। श्रतः में प्रथम व्यापारादि कर अधिक बल प्राप्त करूंगा । पुनः सैनिक बल और तब राज्यबल प्राप्त हो सकता है। अतः धनार्जन के लिए निश्चय ही मैं विदेश गमन करूँगा
।।११।।
नागवल्लीदलं रत्नं पुरुषोऽपि सुपुण्यवान् ।
देशान्तरेषु मां त्यक्त्वा भी कान्ते श्रूयते वचः ॥१२॥
अन्वयार्थ ( भो ) है ( कान्ते ! ) प्रिये ( देशान्तरेषु ) परदेशों में क्रमाकर (नागबल्लीदलम ) नागवल्लो के पत्ते समान ( रत्नम् ) रत्नवाला ( पुरुष ) मनुष्य (अपि) भी (मा) मुझे ( त्यत्वा ) छोड़कर ( वचः ) नाम ( श्रूयते ) सुना जाता है ।
भावार्थ- हे प्रिये ! मुझे छोड़कर जो पुरुष बहुत थोड़ा सा भी धन कमाकर लाया है। तो उसका नाम भी लोग कहते सुने जाते हैं। नागवल्ले के पत्ते समान रत्न भी स्वोपार्जित है तो उसका नाम तो लोग लेते हैं। मेरे पास इतना धन-वैभव सुख सामग्री भी है तो किस काम की ? न तो मेरा नाम ही कोई लेता है न मेरे पिता ही का । सर्वत्र श्वशुर का ही नाम गाया जा रहा है । अतः मेरा निश्चय है कि स्वतः अपने भुजबल से अर्थ सञ्चय कर भोग भोग ।। १२ ।।