Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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(श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद रह सकती, उसी प्रकार मैं भी आपके साथ ही प्रयाग करूंगी आपके बिना मैं नहीं रह सकती हूँ । अतः मेरा निश्चय है कि आपके ही साथ विदेश चलूगी ॥१५॥ और भी मैना सुन्दरी उदाहरण दे रही है -
: छाया या पुरुषेणव, सन्मतिर्वा मुनीशिनाम् ।
नोतिर्वा भूभुजा सार्थ प्रीति वा सज्जनेन च ॥१६॥ , अन्वयार्थ-(वा) अथवा (छाया) परछाई (पुरुषेण) पुरुष के (एव) ही (वा) पत्रमा (सन्मतिः सद्धि (सुनौगिता गिजों के (वा) अथवा (नीतिः) न्याय (भुभुजा) राजा के (वा) अथवा (प्रीतिः) स्नेह (सज्जनेन ) सत्पुरुषों के (मार्थम् । साथसाथ (गच्छति) जाता है।
भावार्थ--और भी तर्क देकर मैनासुन्दरी अपने निश्चय का पोषण करती है कि हे देव ! प्रच्छाया पुरुष के पोछे-पीछे चलती है । उत्तम बृद्धि मुनीश्वरों का अनुसरण करतो है । नौनि राजाओं का अनुकरण करती है। प्रीति-वात्सल्य सत्पुरुषों के साथ-साथ चलता है । इसी प्रकार पतियताओं का कर्तव्य भी छाया के समान पति का अनुसरण करना उत्तम धर्म है । कर्त्तव्य है ।।१६।।
इत्यादिकं प्रिया प्रोक्त श्रीपालस्तन्निशम्य च ।
प्रोवाच मधुरा वाणों शृण त्वं प्राणवल्लभे ॥१७॥ अन्वयार्थ--(इत्यादिकम.) उपर्युक्त प्रकार (प्रिथाप्रोक्तम् ) पत्नि के कहे हुए आग्रह को (निशम्य) सुनकर (थोपान :) श्रीपाल (मधुराम ) मधुर (च) और (बाणी) बाणों को (प्रोवाच) बोला (प्राणवल्लभे ! ) हे प्रिये ! (त्वम् ) तुम (शृण.) सुनो।
भावार्थ .. जब मैंनासुन्दरी ने अत्यन्त प्राग्रह किया और अनेक प्रकार से प्रार्थना की उसकी प्रार्थना सुनकर श्रीपाल जी अत्यन्त मधुर वाणी में बोले, हे प्रिये ! प्रारावल्लभे! सुनो।
कान्तया गमनं साथ विदेश दुःखकारणम् । पुन्सांयानेऽशने स्थाने, शयने दुर्जने वने ॥१८।। कामिन्यः कोमलाङ्गयश्च स्वभावेन सतो प्रिये । स्वं च राजसुता नित्यं, मालतीय सुकोमला ।।१।। तथा तातादयस्ते च श्रुत्वा वार्तामिमां ध्रुवम् । वारयिष्यन्ति मां गाढमुपाविविधैध्र वम् ।।२०।।