Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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भोपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद]
[२१७
अन्वयार्थ .. - (मनो प्रिये) हे सती बल्लभे! (कामिन्य: स्त्रियाँ (कोमलाङ्गया:) सुकोमल अङ्गवाली (स्वभावेन) स्वभाव से हो होती हैं () और (कम् ) तुम तो (राजसुता) राजपुत्रा हो (नित्यं नित्य ही (भालती) भालती (इव) समान (मुकोमला) अत्यन्त सुकोमल हो सुनो ( विदेशे) परदेश में (कान्तया) स्त्रियों के (सार्थ) साथ (गमनम् ) गमन करना (पुसाम्) पुरुषों के (याने) सवरा (अशने) भोजन (स्थाने) निवासस्थान (शयने) शैया (दुर्जने) दुष्टजन (वनेजिम वन का बिया नदुखकारणम् दुस का कारण (भवति) होता है (च) और (ते) तुम्हारे (तातादयः) दादा, पिता, मातादि परिवार के लोग (इमाम ) इस (वार्ताम ) बात को (थुत्वा) सुनकर (ध्रुवम्) निश्चय से (विविधः) माना (उपायः) उपायों से (माम ) मुझको (गाढम् ) वलात् (वारयिष्यन्ति) निवारण करेंगे।
अन्वयार्थ श्रीपाल मनासुन्दरी के आग्रह करने पर समझाता है । हे प्रिये परदेश में स्त्रियों को साथ ले जाने में मनुष्यों को दुख का कारण होता है। स्त्रियाँ स्वभाव से ही सुकोमलाङ्गी होती हैं । उस पर भी हे प्रिये आप तो राजपुत्री हो, मालतीलता के समान कोमल हो । विदेश में सबारी मिले न मिले पैदल चलना पड़ सकता है । समय पर भोजन मिले न मिले, उठने-बैठने को स्थान मि
धन को विछावन का भी कोई ठिकाना नहीं रहता, कब कहाँ कौन दृष्टजन मिल जाय, कब कहाँ अटवियों से गुजरना पड जाय उस समय तुम्हें कितना कष्ट होगा। उससे मुझे भी बाधा आयेगी । यही नहीं, तुम्हें साथ ले जाने की बात सुनकर तुम्हारे कौटुम्बोजन मुझको भी जाने से रोकेंगे । नाना प्रकार के प्रयत्नों से मुझे नहीं जाने देंगे. जिससे मुझे, असन्तोष होगा । अतः पापका जाना उचित नहीं । मेरे साथ रहने से मैं स्वतन्त्र नहीं रह सकूगा ।।१८, १६, २०।।
तस्मादागभ्यते यावन्मया लक्ष्म्या समं शुभे !
तावत्त्वं तिष्ठ भो कान्ते पितुरन्ते सुखेन च ।।२१॥ अन्वयार्थ ---(तस्मात्) इसलिए (भो) हे (कान्ते) प्रिये (यावन् ) जब तक (लक्ष्म्या) लक्ष्मी के (समम ) साथ (मया) मेरा (प्रागभ्यते) आगमन हो (तावत्) तब तक (शुभे!) हे गोभने (त्वम् ) तुम (पितुः) पिता के (अन्ते) पास (सुखेन) सुस्त्र से (तिष्ठ) रहो (च) और ..
भावार्थ-श्रीपालजी कहते हे मदनसुन्दरी, हे शोभने तुम स्वयं विदुषी हो । तुम्हारे साथ आने से परदेश में अनेकों कष्ट आयेंगे । तुम सहन नहीं कर सकोगी । अत: हे कान्ते ! जब तक मैं धन कमाकर लक्ष्मी के साथ वापिस न पाऊँ तब तक तुम यहीं अपने पिता के साथ सुख से रहो ॥२१॥
पुनः पुनः प्रिये मत्वा स्वचित्ते मङ्गलम् मम् । मा यादीस्त्वं निषेधार्थं सर्वकार्य विचक्षणे ॥२२॥