Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद ]
गृह्वन्तु सार रत्नानि यूयं पैदेशिको मम । महादातेव सत् दृष्टः सिन्धुस्तौरसंवदन्तिवा ॥७६॥
अन्वयार्थ----(महादाता) महा उदार दाता (इव) के समान (सिन्धुः) सागर (तैः) उन लोगों से (इष्टः) देखा (सन्) हुअा (वा) मानों (संवदन्ति) कह रहा था (वैदेशिकः) हे परदेशी (यूयम् ) पाप लोग (मम) मेरे (सार) उत्तम (रत्नानि) रत्न को (गृह्वन्तु) ग्रहण करिये।
मावार्थ-गर्जना करता हुआ सागर उन व्यापारियों से मानों कह रहा था कि आप मेरे अमूल्य रत्नों को स्वीकार कीजिये । वह अपनी परम उदारता प्रकट कर रहा था। मानों अपने दातापने का माहात्म्य प्रकट कर रहा था ।।७६।।
एवं ते सागरे सर्वे यावद् गच्छन्ति लीलया। तावद् बर्बरराजस्य वीक्ष्यतान् कर तस्कराः ॥७७।। प्रापुस्ते शस्त्रसंघातयुद्धं कृत्वाति दारुणम् । बद्धा तं श्रेष्ठिनं सार्थभटेर्दशसहस्रकः ।।७।। शीन ते धनमावाय यावद् गच्छन्ति दुर्मदाः । श्रेष्ठी प्राह तदा कुत्र श्रीपालस्सुभटोत्तमः ।।७।।
अन्वयार्थ-(एवं) इस प्रकार (लीलया) लीला पूर्वक (यावद्) जब (ते) वे (सर्व) सभी सार्थवाह (सागरे) समुद्र में (गच्छन्ति) जा रहे हैं (तावद् ) तव ही (बर्बरराजस्य) बरबर राजा के (कर) भयङ्कर (तस्करा:) चोरों ने (तान्) उन को (वीक्ष्य ) देख कर (ते) वे दुष्ट (शस्त्रसंघाते:) अस्त्र शास्त्र सन्नद्ध हो (प्राप:) प्राप्त हुए (अतिदारुणं) भयङ्कर (युद्धम्) युद्ध (कृत्वा) करके (दशसहस्रकैः) दश हजार (भट:) भटों के (साथम) साथ (त) उस (श्रेष्ठिनम् ) सेठ को (बद्धा) बांधकर (शीघ्रम्) शीघ्र ही (दुर्मदाः) वे दुर्बु द्धि (धनम्) धन को (आदाय) लेकर (यावद् ) जैसे हो (गच्छन्ति) जाते हैं कि (तदा) उसी समय (ोष्ठी) धबल सेठ (प्राह) बोला (सुभटोत्तमः) वीरोत्तम् (श्रीपालः) श्रीपाल (कुत्र) कहाँ है ?
भावार्थ आमोद-प्रमोद मग्न सार्थताह चले जा रहे थे। जहाज मुखपूर्वक विना श्रम के बढ रहे थे । चारों ओर हर्ष छाया था । सभी प्रसन्न थे । आपत्ति के बाद प्राप्त सम्पत्ति ::::, विशेष सुखदायक प्रतीत होती है । किन्तु संसार का नियम है सम्पत्ति के पीछे विपत्ति और
विपदाओं के साथ मुख आता रहता है । सांसारिक सुख-दुख कर्माधीन होते हैं। कर्म परिणामों के प्रश्रय हैं । शुभाशुभ परिणामभाव परिवर्तित होते रहते हैं अत: निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धानुसार सुख-दुख भी प्राले-जाते रहते है। प्रथम ही यानपात्र कोलित हो गये, पुण्यपात्र श्रीपालजी