Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र चतुर्थ परिच्छेद पुण्याच्च ते तवा वीक्ष्य श्रीपालं स्वगुणोज्वलम् । पुरप्रदेशमायान्तं पश्यन्तं पुरजां श्रियम् ॥५५॥ मत्त्वनं त्वीरशं भव्य कोटिभट शिरोमरिणम् । निधानमिव सड्.कृष्टास्सं प्रणम्य पुनः पुनः ॥५६॥ गत्वा महाग्रहं शीघ्र तमानीययुस्तदन्तिकम् ।
द्वात्रिंशल्लक्षणोपेतं तं विलोक्य च सुन्दरम् ॥५७॥त्रिकुलम्।। अन्वयार्य-(ते) वे खोजने वाले (पुण्यात्) पुण्ययोग से (तदा) तब (पुर प्रदेशम्) नगर में (प्रायान्तम् ) प्राते हुए, (पुरजाम्) नगरोत्पन्न (श्रियम्) शोभा को (पश्यन्तम् ) देखने वाले (स्व) .अपने (गुणोज्वलम् ) उत्तम गुणों से उज्वल (श्रीपालम) श्रीपाल को (वीक्ष्य) देखकर (एनम ) इसको (कोटिभटः) कोटिभट (शरोमणिः) श्रेष्ठ (भव्यः) भव्य (तु) निश्चय ही (इदशम ) इस प्रकार होवे (इति) इस प्रकार (मत्वा) निश्चय कर, मानकर (निधानम ) निधि (इव) समान (सङ कृण्टा) प्राकर्षित हो (गत्वा)जाकर (पुनः पुन:) बार-बार (सम्प्रणम्य) सम्यक् नमस्कार करके (महा) अत्यन्त (आग्रहम ) अाग्रह से (तम् ) उसे ('द्वात्रिंशत्) बत्तीस (लक्षणाः ) लक्षण (उपेतः) सहित (च) और (सुन्दरम्) सौम्य आकृति (विलोक्य) देख कर (तद्) उस धवल के (अन्तिकम्) पास (पानोपुः) लेकर आये ।।५५-५६-५७।। भावार्थ -धवल सेठ द्वारा प्रेषित अन्वेषण करने वाले इधर-उधर दौड़े । पुण्ययोग
से उसी समय श्रीपाल कोटिभट ने उस नगर में प्रवेश किया । उसे यह पुर' अद्भत लगा। शनैः शनै: नगर की शोभा बिलोकने लगा । वह अपने निर्मल गुरगों से शोभायमान था। उसका रूप सौन्दर्य अनुपम था। वह नगर की शोभा देख रहा था और नगर निवासी इसकी रूप राशि निहार रहे थे। उसी समय धवलसेठ के सेवकों की दृष्टि इस पर पड़ी । उनके अपलक नयन इसे देखते ही रह गये उन्होंने इसे बत्तीस लक्षणों युक्त देखकर समझ लिया इस प्रकार का व्यक्ति अवश्य ही कोटिभट शिरोमणि होना चाहिए । यही हमारे
कार्य के योग्य हो सकता है। मानों निधन को खजाना मिला या अन्धे को आंखे प्राप्त हुयीं । दे वेग से उस महान निधि स्वरूप परदेशी के पास आ पहुँचे । अत्यन्त सम्मान से उसे बार-बार नमस्कार किया। अपने