Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद भावार्थ---श्रीपाल जो कहते हैं कि हे भद्रे ! कल्याणि ! आपका चलते समय वस्त्र पकड़ना मङ्गल का कारण है । अत: मुझे छोड़ो। इस प्रकार कहने पर मैनासुन्दरी कहने लगी हे नाथ मेरे वचन सुनिये, "आप ही कहिये इस प्रकार वस्त्र छ डाकर आपका जाना क्या वीरत्व है ? सच्चे ! सुभट को यह योग्य है क्या ? मैं पहले वस्त्र छोडू या अपने प्राण विसर्जन करूं पाप ही कहिये ? पुनः श्रोपाल कहने लगे –
द्विषट् संवत्सर प्रान्ते यदा नायामि निश्चितम् ।
पाशा श्रीद्धिचक्रस्य निगोति विनिर्गतः ॥३४॥ अन्वयार्थ-हे देवि ! (द्विषट् ) बारह (संवत्सर) वर्ष (प्रान्ते ) अन्त में (यदा) जब (न) नहीं (आयामि) प्राजाता हूँ तो (सिद्धचक्रस्य) सिद्धचक्र की (आज्ञा) शपथ है (इति) इस प्रकार (निगद्य) कहकर (विनिर्गत:) चला गया।
भावार्थ-मैंना सुन्दरी अति व्याकुल, अधीर देखकर श्रीपाल वचन बद्ध होता है। वह कहता है, हे प्रिये मैं सिद्धचक्र को साक्षी पूर्वक प्रतिज्ञा करता है कि बारह वर्ग के समाप्त होने के पूर्व ही आजाऊँगा । यदि नहीं आया तो सिद्धचक्र की शपथ का उल्लंघी हो जाऊँगा। इस प्रकार विश्वास दिलाकर वह वहां से निकल गया ।।३४।। पत्नी के यहाँ से माता के पास गया ।
नवा स्वमातरं प्राह भी मातस्ते प्रसादतः।
गत्वा देशान्तरं शीघ्रमागमिष्यामि सद्धनम् ॥३५॥ अन्वयार्थ----श्रीपाल (स्व) अपनी (मातरम्) माता को (नत्वा) नमस्कार करके
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