Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ]
यत्ते निगद्यते नाथ तत्सत्यं श्रृण तादरात् । लोके कल्पतरो व्यक्त क्रियते तोरणापखम् ||३०|| वार्तामा निर्गतो मन्दिरात्तदा ।
इति
वस्त्रप्रान्तं धृतं गाढं दन्त्या कान्तया तया ॥३१॥
अन्वयार्थ - (यत्) जो (ते) आपने ( निगद्यते ) कहा है ( नाथ ! ) हे नाथ ! (तत्) वह ( सत्यम ) सत्य है ( आदरात् ) प्रादर से (ऋण) सुनिये (लोक) संसार में ( कल्पतरोः ) कल्पवृक्ष का ( व्यक्तम् ) प्रकटो करण (तोरण) वन्तमाला ( अर्पणम ) अर्पण कर ( क्रियते ) किया जाता है। (इति) इस प्रकार ( यदा) जब ( प्रायः) पीडित जाया से (मुक्तः) श्रीपाल मुक्त हुआ ( तदा) तब ( मन्दिरात्) भवन से (निर्गतः ) निकलने लगा ( तदा) उस समय (तथा) उस ( रूदन्त्या) रोती हुयों कान्तया) पलिद्वारा ( वस्त्रप्रान्तम् ) उसके वस्त्र का पल्ला (गाढम् ) जोर से ( धृतम् ) पकड़ लिया गया ।
—
भावार्थ — मैंनासुन्दरी ने कर्त्तव्याकर्त्तव्य का भान कराया। धैर्य पूर्वक पति देव की कल्याण भावना से गमनकाल में होने वाले शुभ कार्यों को किया । अर्थात् पाद प्रक्षालन, कङ्कणबन्धन, तिलकान, मङ्गल भारती, अक्षतादि क्षेपण कर अपने प्राणनाथ को विदाई दी । महाराज श्रीपाल भी वियोग-संयोग के झूले में झूलते पुनर्मिलन का आशादीप जलाये अपने महल से निकले । सहसा नारी का आर्तहृदय बांधतोड फूट पड़ा। मैंना सिसक उठी। वह अपने आवेश को रोक न सकी। अचानक उसने निर्गमन करते अपने पतिदेव का उत्तरीय वस्त्र जोर से पकड़ लिया और रूदन करने लगी। यह देख श्रीपालजी उसे धैर्य बंधाने के लिए बोले
[२२१
श्रमङ्गलमिदं भद्रे मुञ्चमां गमनं क्षणे ।
तेनाक्त' सा जगा दैवं श्रृण त्वं प्राणवल्लभः ॥ ३२ ॥
प्रारणान् मुच्चामि किं या वस्त्रं ववात्र मे
प्राक्षिप्य वसनं यासि यदा त्वं नासि सद्भटः ||३३||
अन्वयार्थ - - (भद्र ) हे कल्याणि ! (इदम्) यह ( गमनम् ) जाने के ( क्षणे ) समय में ( श्रमङ्गलम ) अमङ्गल है अतः (माम ) मुझको ( मुञ्च ) छोड़ो, इस प्रकार कहने पर ( तेन ) श्रीपाल के ( उक्तम) कहने पर (सा) मैना सुन्दरी ( जगाद ) बोली ( एवं ) इस प्रकार ( प्राणवल्लभ ) हे प्राणधार ! (त्वम् ) श्राप (ऋण) सुनिये (किम ) क्या ( पूर्व ) प्रथम (वस्त्रम ) वस्त्र ( मुञ्चामि ) त्यागू (किंवा ) श्रथवा ( प्राणान् ) प्राणों को (अत्र ) अब (मे) मुभे (द) कहिये, (यदा ) जब आप (वसनम ) वस्त्र को (आक्षिप्य ) छटक कर ( यासि ) जाते हो तो ( त्वम् ) आप (सद्भटः) उत्तम सुभट (न) नहीं ( असि ) हो ।