Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ]
[ १७३
जिनवाणी (तथा) और (गुरूणाम् ) गुरूओं के ( चरणाम्भोज द्वयम् ) चरणकमल दोनों भी ( पूज्यम्) पूज्य हैं।
भावार्थ- सुखार्थियों को जिस प्रकार प्रर्हत भगवान पूज्य हैं उसी प्रकार जिनवाणी और श्री गुरुचरणों की भी पूजा-भक्ति करना चाहिए । अर्थात् देव, शास्त्र और गुरू तीनों ही की यथायोग्य भक्ति पूजा करना श्रावश्यक है ।। ६७ ।।
पुनः स्तुत्वा जिनंनत्वा ये जयं कुर्वते बुधाः ।
ते भव्यास्तत्सुखंप्राप्य निर्वृतिं यान्ति वेगतः ॥६८॥
अन्वयार्थ (पुनः) फिर ( ये ) जो ( बुधा:) बुद्धिमान ( जिनं ) जिनेन्द्र भगवान की ( स्तुत्वा ) स्तुति करके ( नत्वा) नमस्कार करके ( जयम् ) जयजयकार ( कुर्वते ) करते हैं (ते) वे (भव्याः ) भव्य मनुष्य (वेगतः) शीघ्र ही (सत्सुखं) स्वर्गादिसुख ( प्राप्य ) प्राप्तकर निर्वृति) मोक्ष को (यान्ति) जाते हैं ।
भावार्थ - जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर जो विद्वान भव्यजन जिनेन्द्रप्रभु की स्तुति करते हैं, नमस्कार करते हैं, तथा जयजयकार करते हैं। वे भव्यात्मा साररूप स्वर्गादि सुख को पाते हैं । पुनः शीघ्र ही मोक्ष सुख भी प्राप्त कर लेते हैं। जिनभगवान की भक्ति मुक्तिदायिनी है || ६८ ||
पूज्यपूजाक्रमेणोच्चैः कृत्वा पूज्यतमो भवेत् ।
तस्माद् भव्यजनैनित्यं पूज्य पूजा न संध्यत ॥६६॥
अन्वयार्थ - - ( उच्चैः ) विशेष माहात्म्य से ( पूज्यपूजा) पूज्यों की पूजा ( कृत्वा ) करके ( क्रमेण ) क्रमश: ( पूज्यतमो) पूजक ही पूज्यतम ( भवेत् ) हो जाता है । ( तस्माद् ) इसलिए ( भव्यजनैः ) भव्य जीवों द्वारा (नित्यम् ) नित्य ( पूज्य ) पूजनीय देव, शास्त्र गुरू की (पूजा) पुजा ( न लभ्यते) नहीं छोडना चाहिए ।
भावार्थ जो सच्चे देव, शास्त्र और गुरू की भक्ति श्रद्धा, विनय से विधिवत् पूजा करता है वह स्वयं क्रमशः पूज्यतम्-मर्हत हो जाता है। इसलिए भव्यों को उत्साहपूर्वक पूजा करनी चाहिए। कभी भी पूजा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए || ६६।।
तीर्थेशामभिषेचनात् सुरवरैस्संस्नाप्यते सादरम् ।
संपूज्यो वर पूजनः स्तवनतः स्तुत्योभवेद् धार्मिकैः ॥
संजय जपनेन निर्मलधियां ध्येयस्सदाध्यानतो । जीवाः श्रीजिनबोधतो गुणनिधिः प्रान्ते भवेत् केवली ॥७०॥