Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद तथा साधून्मुनीन्द्रांश्च परित्यज्य कदाचन ।
अन्यस्मै न करिष्यामि नमस्कारं महामुने ॥७७॥ अन्वयार्थ-(इति एवम ) इस प्रकार (तेन) उन (गरूरगा) गुरूदेव (प्रोक्त) कथित (जिनेशिनाम ) जिनभगवान के (तं) उस (धर्म) धर्म को (श्रुत्वा) मुनकर (श्रीपाल राजा) श्रीपालभूपति (कृताञ्जलिः) हाथ जोड़कर (समुत्थाय) उठकर (भक्तित भक्ति से (तं) उन (उत्तमम् ) श्रेष्ठतम (सुगुप्ताचार्यम) सुगुप्ति नाम के प्राचार्य (मुनि) मुनि को (नत्वा) नमस्कार कर (अबदत) बोला, (भो स्वामित्) हे स्वामिन, (महामुने) हे मुनीन्द्र ! (कदाचन) कभी भी (जगन्नाथम ) जगदीश्वर (धोमज्जिनेश्वरम.) श्रीसर्वज्ञ'-भगवान को (मक्त्वा) छोडकर (तथा) तथा (साधन ) साध-वीतरागी दिगम्बर साधुओं (च) और (मुनीन्द्रान) प्राचार्यो को (परित्यज्य) छोड़कर (अन्यस्म) दूसरों के लिए (नमस्कारम् ) नमस्कार (न) नहीं [करिष्यामि] करूंगा।
मावार्थ-श्रीसुगुप्ताचार्य मुनिराज का धर्मोपदेश श्रवण कर महाराज श्री श्रीपालजी को परमानन्द हुआ । अन्तरङ्ग वोध जाग्रत हुआ । भक्ति और श्रद्धा से गद्गद् हो उठा। दोनों हाथ जोडकर मस्तक झुकाकर बड़ी विनय से सडे होकर गुरुदेव से प्रार्थना की कि "हे प्रभो ! मैं जिनेन्द्र देव, जिनवाणी अोर जिनगुरु-दिगम्बर मुनि को छोडकर अन्य किसी को भी नमस्कार नहीं करूंगा ।" यह आजन्मन्नत पालूगा । सम्यग्दर्शन का यही चिन्ह है। या यों कहो यही सच्चा व्यवहार सम्यग्दर्शन है जो नियम से निश्चय सम्यग्दर्शन का साधक है ।।७।।
इत्यादिकं प्रजल्प्योच्चः परमानन्दनिर्भरः ।
सम्यक्त्वं त्रिजगत्सारं स्वचक्के परमार्थतः ॥७॥ अन्वयार्ग--(इत्यादिकम् ) उपर्युक्त प्रकार प्रज्ञप्ति (उच्चैः) विशेष रूप से (प्रजन्य) प्रकट करके (परमानन्दनिर्भरः) परमानन्द से भरे श्रीपाल ने (परमार्थतः) यथार्थ (त्रिजगत्सारम) तीनों लोकों का सारभूत (सम्यक्त्वं) सम्यग्दर्शन (स्वीचक्र) स्वीकार किया ।
भावार्थ-श्रीपाल नपति ने मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक परम आनन्द से परमार्थ सम्यग्दर्शन स्वीकार किया । सम्यग्दर्शन तीनों लोकों में सार है । स्वर्गादि के सुखों के साथ मोक्षलक्ष्मी का समर्थ कारण है।
पुनर्मु निर्जगादोच्चैः शृणु त्वं पुत्र बच्मि ते ।
सर्वसिद्धिप्रदं सिद्धचक्रपूजा विधानकम् ॥७॥ अन्वयार्थ—(पुनः) पुनः (मुनिः) मुनिराज (उच्चैः) विशेष (जगाद) बोले,