Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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॥अथ चतुर्थ परिच्छेदः॥ प्रथकदा निशभ्योच्चः श्रीपालो गायनादिभिः। प्रजापालमहीभर्तु नाम्ना स्थस्यकृतां स्तुतिम् ॥१॥ स्वचित्ते चिन्तयामास हा कष्टं मम जीवितम् ।
श्रूयतेऽहं सदा नाम्ना श्वसुरस्य महीतले ॥२॥ युग्मम् ।। अन्वयार्थ-(अथ) सुखपूर्वक रहते हुए (एकदा) एक समय (श्रीपाल:) राजा श्रीपाल ने (प्रजापालमहीभत्तुंः) प्रजापालराजा के (नाम्ना) नाम द्वारा (गायनादिभिः) गायकों द्वारा गाई गई (स्वस्य) अपनी (कृताम् ) को गई (स्तुतिम् ) स्तुति को (उच्चैः) विशेषरूप से (निशम्य) सुनकर (स्व) अपने (चित्ते) मन में (चिन्तयामास) विचार करने लगा (मम् ) मेरे (जीवितम् ) जीवन को (हा) धिक्कार है (कष्टम ) महादुख है कि (सदा) हमेशा (महीतले) भूमिपर (अहं) मैं (श्वसुरस्य) ससुर के (नाम्ना) नाम से (श्रूयते) सुना जाता हूँ।
मावार्थ-श्रीपाल और मैंनासुन्दरी प्रेम से आनन्द पूर्वक रहने लगे । सुख-शान्ति से दोनों काल यापन करने लगे। धर्मध्यानपूर्वक दोनों अनुत्सुक भोगों को भोगने लगे । समय कहाँ जा रहा है, यह भी ज्ञात नहीं हुगा । अचानक एक दिन श्रीपाल राजा ने बन्दीजनों द्वारा अपनी स्तुति सुनो । वह स्तुति उनके श्वसुर के नाम के साथ गायी गई थी । अपना गुणगान, यशोराशि सुनकर श्रीपाल का मन क्षुभित हो उठा, क्योंकि वह गुणानुवाद प्रजापाल महाराज के जंबाई के नाम से किया गया था । एकाएक वह मन में चिन्तवन करने लगा "मेरे जीवन को धिक्कार है, मेरे जीवन से क्या प्रयोजन ? बड़े खेद की बात है कि यहाँ सर्वत्र मेरे ससुर का ही नाम सुना जाता है । मैं किसका पुत्र हूँ कोई नहीं जानता । अर्थात् मेरे पिता का नाम ही मिटा जा रहा है फिर मुझ पुत्र के जोने से क्या ? कोई लाभ नहीं ।।१-२॥
मल्पितुः श्रूयते नैव नाम्नाप्यत्र कदाचन ।
मया निर्ममितं तच्च मन्दभाग्येन साम्प्रतम् ॥३॥ अन्वयार्थ - (अत्र) यहाँ (कदाचन) कभी भी (मत्) मेरे (पितुः) पिता के (नाम्ना) नाम से (नैव) नहीं (श्रूयते) सुना जाता है (साम्नतम् ) इस समय (मया) मुझे (मन्दभाग्येन) मन्दभागी द्वारा (तत्) वह (च) और ही (निर्ममितम् ) निर्माण हो गया। अर्थान् होना था कुछ और, और हुआ दूसरा ही ।