Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद
नित्यं यथा यथा भर्ता, सिक्तो लिप्तस्तथा तथा । दिनं दिनं प्रज्यिक, सिद्धचक्र प्रभावतः ॥ १२६॥
स श्रीपालो लसत्वालो, दिव्यमूतिर्भवंस्तथा । श्रष्टमे दिवसे प्राप्ते, नष्ट व्याधिर्बभूव सः ॥ १३०॥
अन्वयार्थ - ( तदा ) तब उन ग्राठों दिनों में प्रतिदिन (तया) मैंनासुन्दरी ने (अति) अत्यन्त (परमादरात्) परम आदर से ( नित्यम् ) प्रतिदिन (श्रीजिनसिद्धानाम् ) श्रीजिनेन्द्रभगवान और सिद्धों के (तत्) उस ( चन्दनान्वितेन) शुभचचित चन्दन से युक्त (स्नानतोयेन ) गन्ध | दक से (यथा-यथा ) जैसे-जैसे ( भर्त्ता ) पति (सिक्त: ) अभिसिंचित किया (च) और (लिप्तः ) लिप्त किया गया ( तथा तथा ) वैसे-वैसे ( सिद्धचक्रप्रभावतः ) श्री सिद्धचक के प्रभाव से ( दिनं दिनं ) प्रतिदिन ( प्रतिव्यक्तम् ) स्पष्टरूप से ( स ) वह ( बालः) बाल (श्रीपाल : ) श्रीपाल ( लसत् ) शोभित हुआ (तथा) और ( दिव्यमूर्ति ) सुन्दरमूर्ति ( भवन्स) होता हुआ ( अष्टमे ) आठवें ( दिवसे) दिनके ( प्राप्ते) प्राप्त होते ही (सः) वह ( नष्टव्याधिः ) रोगरहित ( बभूव ) हो गया ।
भावार्थपतिव्रता, उस मैनासुन्दरी ने प्रखण्डब्रह्मचर्य से पावन मन वचन काय से आठ दिन तक व्रत पूर्वक श्रीसिद्धचक्र की विधिवत अभिषेक पूजा की। नित्य प्रति श्रीजिनेन्द्रप्रतिमा सहित सिद्धयन्त्र का पञ्चामृताभिषेक करती थी अनन्तर चन्दन लेपन कर उस गन्ध और गन्धोदक से अपने पति श्रीपाल का आपादमस्तक-शिर से पैर तक गन्धोदक छिड़कती और चन्दनलेपन करती । जैसे-जैसे प्रतिदिन वह गन्धोदक स्नान कराती गई वैसे-वैसे महाराज श्रीपाल के शरीर से व्याधि निकल कर उस प्रकार भागती गई जैसे मयूर को देख कर सर्प भाग खड़े होते हैं। दिन-प्रतिदिन उसका रूप लावण्य निखरने लगा, महा साता होती गई, पीडा शमित होती गई । श्राउवें दिन कञ्चन सी काया हो गई। व्याधि पूर्णतः नष्ट हो गई। वह कुष्ठी श्रीपाल अब दिव्यरूप हो गया । यामूल काया पलट हो गई | तथा ॥ १२८
१३० ।।
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पूर्व रूपादपि प्राप्त रूपसौभाग्य सम्पदः । कामदेवमाकारः कान्त्याजित सुधाकरः ॥१३१॥
अन्वयार्थ - - ( पूर्व ) पहले (रूपात् ) सौन्दर्य से (अपि) भी अधिक ( रूप ) सौन्दर्य (सौभाग्य) सौभाग्य ( सम्पदः) सम्पत्ति ( प्राप्तः ) प्राप्त हुई । ( कामदेवसमाकारः ) आकार कामदेव सदश (कान्त्याजित सुधाकरः) कान्ति से चन्द्रमा को भी जीतने वाला रूप ( प्राप्तः ) प्राप्त हुआ ।
त्रिजगद् वनितावृत्व मनोमाणिक्य मोहनः । सिद्धचक्रप्रसादेन जगद्व्याप्य यशोधनः ॥ १३२ ॥