Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद
[१६१ जल, चन्दन, अक्षत, पूष्प नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से श्री सिद्धचक्र महायन्त्र की पूजा समाप्त की ।।१२४॥
रात्रौ जागरणं कृत्वा संद्येन महता सह ।
नवभ्यां वशधोपेतां तथा स्तवन पूर्वकम् ॥१२५॥
अन्वयार्थ - (महता) बहुत (संघेन) समुदाय के (सह) साथ करके (तथा) तथा (स्तवन) स्तोत्रादि (पूर्वकम् ) सहित (जागरण) जागरण (कृत्वा) करके (नवम्याम्) नवमी के दिन (दशधोपेताम्) दशगुणी सामग्री से तथा दशगुणे बंभव से पूजा की।
दशभ्यां शतधा पूजामेकावश्यां सहस्रधा । द्वादश्यां तब्दशोपेतां त्रयोदश्याञ्च लक्षिकाम् ॥१२६॥ दशलक्षगूणां पूजां चतुर्दश्यां विधाय च
कोटिधा पूर्णिमायाञ्च, पूजां चक्के शुभाशया ॥१२७।।
अन्वयार्थ - (शुभाशया) पवित्र भावना से (दशम्यां) दशमी के दिन में (पतधा) सौगुनी (एकादश्याम् ) ग्यारस के दिन (सहस्रधा) हजार गुणित (द्वादश्याम्) बारस को (तद्दशोपेताम् ) उससे दशगुणी अर्थात् दशहजारगुणी (च) और (त्रयोदश्याम) तेरस के दिन (लक्षिकाम् ) लाखमुनी (पूजा) पूजा (विधाय) करके (च) और (पूर्णिमायाम्) प्णिमा को (कोटिधा) करोडगुनी महिमा से (पूजाम् ) पूजा को (चक्रे) की ।
भावार्थ - अष्टान्हिका महापर्व के प्रारम्भ होते ही मैंनासुन्दरी ने गुरू प्राज्ञा प्रमाण नन्दीश्वर ब्रत प्रारम्भ किया, श्रीपाल ने भी नत किया। परन्तु सिद्धचक्र विधान मदनसुन्दरी ने ही स्वयं आरम्भ किया। प्रथम अष्टमी के उपर्युक्त प्रमाण अत्यन्त वैभव से पूजा को तथा रात्रि में जागरण किया-कराया, स्तुतिपाठ, भजनादि सिद्धसमूह की भक्ति की। नवमी के दिन अष्टमी की अपेक्षा १० गुने वैभव भक्ति से विधि-विधान महोत्सव किया । दशमी के दिन . उससे भी अधिक १०० पट द्रव्यों से आराधना की। एकादशी को हजार मुरिणत नानाविध नानासामग्नी से मण्डल विधान पूजा कर श्री सिद्धचक्र की आराधना की । द्वादशी के दिन दशहजारगुने, त्रयोदशी के दिन लक्ष-लाख गुने और पूणिमा के दिन करोडमुने वैभव, द्रव्यादि से श्री सिद्धचक्र की अर्चना कर अपने को धन्य समझा । भावों की पवित्रता उत्तरोत्तर बढती गई और पापों का क्षय भी उत्तरोत्तर अधिक-अधिक होता गया। पुण्य की वृद्धि भी उसी प्रकार होती गई । इस प्रकार आठ दिन तक लगातार ठाठ-बाट से पूजा, आराधना की ।।१२५, १२६ १२७॥
तदा श्री जिनसिद्धानां, स्नान गन्धोदकेन च । तच्चन्दनान्वितेनोच्च, स्तयाति परमादरात् ।।१२८॥